गुरुवार, 12 सितंबर 2013

दुल्हनिया!


ना,ना,न छूना घूंघटा,
सहमी सिमटी है दुल्हनिया,
अभी छलके हैं इस के नैना,
यादों में है बाबुल अपना!

आँखों से कजरा बह गया,
बालों में गजरा मुरझाया,
हैं हिनाभरी हथेलियाँ,
याद आ रही हैं सहेलियाँ...

दादी औ माँ में उलझा है ज़ेहन,
उसमे बसा है नैहरका आँगन,
धूप में बरसती सावनी फुहार,
फूल बरसाता हारसिंगार...

गीली मिट्टी पे मोलश्री के फूल,
नीम के तिनकों में पिरोये हार,
मेलों के तोहफे,बहनका दुलार,
अभी यही है,इसका सिंगार!

सिंगार ,हिना,सावन,नैहर, आँगन।

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

वो वक़्त भी कैसा था