इन पहाड़ों से ,श्यामली घटाएँ,
जब,जब गुफ्तगू करती हैं,
धरती पे हरियाली छाती है,
हम आँखें मूँद लेते हैं..
हम आँखें मूँद लेते हैं...
उफ़! कितना सताते हैं,
जब याद आते है,
वो दिन कुछ भूले,भूले-से,
ज़हन में छाते जाते हैं,
ज़हन में छाते जाते हैं...
जब बदरी के तुकडे मंडरा के,
ऊपर के कमरे में आते हैं,
हम सीढ़ियों पे दौड़ जाते है,
और झरोखे बंद करते हैं,
झरोखे बंद करते हैं,
आप जब सपनों में आते हैं,
भर के बाहों में,माथा चूम लेते हैं,
उस मीठे-से अहसास से,
पलकें उठा,हम जाग जाते हैं,
हम जाग जाते हैं,
बून्दनिया छत पे ताल धरती हैं,
छम,छम,रुनझुन गीत गाती हैं,
पहाडी झरने गिरते बहते हैं,
हम सर अपना तकिये में छुपाते हैं,
सर अपना तकिये में छुपाते हैं..