सोमवार, 30 नवंबर 2009

ek safar tanhaa..2( antim)

रही तलाश इक दिए की,
ता-उम्र इक  शमा को,
कभी उजाले इतने तेज़ थे
की , दिए दिखायी ना दिए,
या मंज़िले जानिब अंधेरे थे,
दिए जलाये ना दिए गए.....

मै क्या कहूँ,की, मै कहाँ हूँ? मुझे खुद खबर नही...ना राह ना रहनुमा..कान पे हाथ रख लेती हूँ, की, खामोशियाँ सुनायी न दे..जिसका सब कुछ छीन गया हो, उसकी क़िस्मत क्या होगी? नह्नीं औलाद छिन गयी...जो मेरी ज़िंदगी थी..मै उसे लोरी गाके सुला नही सकती...ना अपना दूध पिला सकती..रोती नही,की, मनाये कौन..आँसू पोंछे  कौन ?? मेरे सफ़र का अंत कहाँ? मेरे अंत के  साथ? .. क्या मेरा अंत हो नही गया जब एक माँ को अपनी औलाद से जुदा कर दिया गया? उस दूधमुही बच्ची का क्या कुसूर?

ज़िंदगी की हर तमन्ना मर चुकी...तो मुझे कौन ज़िंदा कहेगा?? मुझे खबर नही के मेरे जिगर का टुकडा..मेरी लाडली कहाँ है..मै अपनी दुनिया उसपे वार दूँ, गर पता चले वो है कहाँ...इस देशमे या परदेसमें?? क्या वहाँ से गुज़रती हुई हवा मुझे बताएगी? क्या चाँद मेरी लोरी उसे सुनाएगा? अपनी दास्तान सुना रही हूँ,तो आँसू थामे नही थमते..

मेरी लाडली को कौन बहलाता होगा जब वो रोती होगी ?? कौन खिलाता होगा? कौन सुलाता होगा? उसकी तलाश मेरी ज़िंदगी का मक़सद है...वहीँ से शुरू वहीँ ख़त्म...मैंने ऐसा कौनसा दुष्कर्म किया होगा जिसकी मुझे सज़ा मिल रही है...?? मै अपनी हर की न की खता स्वीकार कर लूँ गर मुझे मेरी बच्ची की खबर मिले..खबर मिले की,वो सही सलामत है...ईश्वर उसे किस गुनाह की सज़ा दे रहा है? इतनी-सी जान कभी कोई खता कर सकती है,जिसकी उसे सज़ा मिल रही है?

रातों में वो मेरी बाँहों में आ जाती है...गर नींद लगती है..कभी मै अपनी माँ की बेटी बन जाती हूँ..कभी अपनी बिटिया को सीने से लगा लेती हूँ...रातों मेही जी सकती हूँ...दिन के उजाले मुझे रास नही आते..

अगली कड़ी क्या लिखूंगी? मेरी दास्ताँ   का अंत मुझे खुद नही पता...इसलिए यहीं बिदा लेती हूँ..इस दुआ के साथ,की, दुनियामे जीते जी, किसी माँ की औलाद इस तरह कोई ना छीने..

समाप्त

बुधवार, 18 नवंबर 2009

Ek safar tanhaa..

एक लम्बा तनहा सफ़र...जहाँ दूर दूरतक छाया नही...मानो रेगिस्तान हो..मील के पत्थर कहाँ खोजूँ? बरसों मिला नही...यही पता नही की, कितना दूर निकल आयी हूँ..सरपे धूप रही या रातमे अँधियारा...जो राह दिखाए वो तारा कहीं नही था..युग  बीते..मध्यान्य का सूरज  ...परछाई पैरों तले...दिशा कैसे पता चले? कैसा भयानक दिशा  भ्रम है?

कुछ  तो कहीं रहगुज़र होती...कोई हमसफ़र होता...पर सब कब बिछड़ गए,कैसे बिछड़ गए? एक शोर-सा सुनायी देता था..पर उसे सुने भी अरसा हुआ..कहाँ है मंजिल मेरी...??उस धूलसे सने मीलके पत्थर के पास? जिसे मै पीछे छोड़ आयी..? लौटने के लिए राह नही...आगे,आगे चलती हूँ...पीछे छूटी सराय  के दरवाज़े बंद हो जाते हैं...सराय भी कैसी? अंधेरी..बिना छतकी..दीवारों पे उल्लू और चिमगादर....बस वही ज़िंदगी का निशाँ...मै तो डरना भी भूल चुकी हूँ...ज़िंदगी के निशाँ खोज रही हूँ...गर मेरे साथ उड़े तो ये परिदे भी चलेंगे...लेकिन मेरे लिए ये क्यों अपना बसेरा छोड़ेंगे? 

इन राहों पे लुटेरे भी नही,जिनपे मै चल रही हूँ...क्यों होंगे यहाँ लुटेरे जब पास कोई खजाना भी नही..दरबदर भटकता जीवन..आस के सारे पाखी उड़ गए या मैंने उड़ा दिए? खबर नही..रात कभी रेतपे सो जाती हूँ...तो सपनों में अपनी माँ दिखाई देती है...जो नही रही...सखियाँ जो कबकी साथ छोड़ कहीँ खो गयीं..माँ जो लोरी गुनगुनाती थी,वो भी सुनायी देती रहती है...काश सपने टूटे ना..मै रातों में जी लूँगी...ये हाथसे छूटे ना..

क्रमश:

रविवार, 8 नवंबर 2009

kyon? kyon?

क्यों करते हैं याद उनको,
जो हमें याद करते नही?
क्यों तकते हैं राह उनकी,
जब वो इधरसे गुज़रते नही?
रोज़ करते सिंगार, जबकि,
वो पलक उठा के देखते नही?
दौड़ते हैं खोलने द्वार, जानके भी,
आदतन,के ये कमबख्त जाती नही !