दिल्ली में हुए बलात्कार के बारेमे बहुतसे दोस्तों ने बहुत कुछ लिख दिया।टीवी पे देखा।जनता लड़ झगड़ रही थी आपस में ...अक्सर लोग ऐसे में पुलिस को दोषी मानते हैं.
ब्लू लाइन बस सेवा बंद कर दी तो वाईट लाइन बिना परवाना शुरू हो गयी। इन्हें किसने परवाना जारी किया? या विना परवाना चला रहे हैं तो क्या परिवहन विभाग दोषी नहीं? मिया बीबी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी ? जनता भी चुप, प्रादेशिक परिवहन विभाग भी चुप,और मीडिया घटना घट जाने के बाद ही आवाज़ उठाती है।बली का बकरा पुलिस है ही। अव्वल तो पुलिस हर बस में सवार हो नहीं सकती। क्या ज़िम्मेदार नागरिक की हैसियत से हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं? जब हमारे राष्ट्रपती 35 मुजरिमों को ,जिन्हें फांसी की सज़ा हुई थी,माफी की याचिका पे हस्ताक्षर कर देते हैं,तो क्या जनता आवाज़ नहीं उठा सकती? हमारी नपुंसक क़ानून व्यवस्था इस बात की इजाज़त क्यों देती है? एक बार न्यायलय फांसी सुना दे तो उसे ख़ारिज किया ही क्यों जाता है? इन दरिंदों को गर फांसी हुई भी तो क्या राष्ट्रपती महोदय या मानवाधिकार के माननीय सदस्य उसे मान लेंगे? आज लोग आवाज़ उठा रहे हैं।कितने दिन यही लोग इस घटना को याद रखेंगे?ये वारदात भी एक आंकडा बन के रह जायेगी। फिर एकबार हमारे घिस पिटे कानूनों की जयजयकार बोलिए। देखें फास्ट ट्रैक न्यायलय कौनसे गुल खिलाता है!टीवी के टॉक शो से भी अब मुझे नफरत हो गयी है। सभी जोश में आके बतियाते हैं।कोई मुद्दे की जड़ तक नहीं जाता।क्यों जनता एक जुट होके कानून में बदलाव लाने की मांग नहीं करती?एक अकेले प्रकाश सिंग( BSF के अवकाश प्राप्त DGP ) बरसों से कानूनी लडाई लड़ रहे है,IPC की धाराओं में बदलाव के लिए। कितनों की इसकी भनक भी है?
आप सभी का क्या कहना है? मै इन धाराओं के बारे में अपने ब्लॉग पे कई बार लिख चुकी हूँ। आतंकवाद और इन धाराओं का गहरा सम्बन्ध है। मेरे आलेखों पे मुझे एक या दो कमेन्ट मिले थे!
ब्लू लाइन बस सेवा बंद कर दी तो वाईट लाइन बिना परवाना शुरू हो गयी। इन्हें किसने परवाना जारी किया? या विना परवाना चला रहे हैं तो क्या परिवहन विभाग दोषी नहीं? मिया बीबी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी ? जनता भी चुप, प्रादेशिक परिवहन विभाग भी चुप,और मीडिया घटना घट जाने के बाद ही आवाज़ उठाती है।बली का बकरा पुलिस है ही। अव्वल तो पुलिस हर बस में सवार हो नहीं सकती। क्या ज़िम्मेदार नागरिक की हैसियत से हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं? जब हमारे राष्ट्रपती 35 मुजरिमों को ,जिन्हें फांसी की सज़ा हुई थी,माफी की याचिका पे हस्ताक्षर कर देते हैं,तो क्या जनता आवाज़ नहीं उठा सकती? हमारी नपुंसक क़ानून व्यवस्था इस बात की इजाज़त क्यों देती है? एक बार न्यायलय फांसी सुना दे तो उसे ख़ारिज किया ही क्यों जाता है? इन दरिंदों को गर फांसी हुई भी तो क्या राष्ट्रपती महोदय या मानवाधिकार के माननीय सदस्य उसे मान लेंगे? आज लोग आवाज़ उठा रहे हैं।कितने दिन यही लोग इस घटना को याद रखेंगे?ये वारदात भी एक आंकडा बन के रह जायेगी। फिर एकबार हमारे घिस पिटे कानूनों की जयजयकार बोलिए। देखें फास्ट ट्रैक न्यायलय कौनसे गुल खिलाता है!टीवी के टॉक शो से भी अब मुझे नफरत हो गयी है। सभी जोश में आके बतियाते हैं।कोई मुद्दे की जड़ तक नहीं जाता।क्यों जनता एक जुट होके कानून में बदलाव लाने की मांग नहीं करती?एक अकेले प्रकाश सिंग( BSF के अवकाश प्राप्त DGP ) बरसों से कानूनी लडाई लड़ रहे है,IPC की धाराओं में बदलाव के लिए। कितनों की इसकी भनक भी है?
आप सभी का क्या कहना है? मै इन धाराओं के बारे में अपने ब्लॉग पे कई बार लिख चुकी हूँ। आतंकवाद और इन धाराओं का गहरा सम्बन्ध है। मेरे आलेखों पे मुझे एक या दो कमेन्ट मिले थे!