शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

वो घर बुलाता है...

जब,जब पुरानी तस्वीरें

कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,

हँसते ,हँसते भी मेरी

आँखें भर आती हैं!



वो गाँव निगाहोंमे बसता है

फिर सबकुछ ओझल होता है,

घर बचपन का मुझे बुलाता है,

जिसका पिछला दरवाज़ा

खालिहानोमें खुलता था ,

हमेशा खुलाही रहता था!



वो पेड़ नीमका आँगन मे,

जिसपे झूला पड़ता था!

सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,

माँ जो कहानी सुनाती थी!



वो घर जो अब "वो घर"नही,

अब भी ख्वाबोमे आता है

बिलकुल वैसाही दिखता है,

जैसा कि, वो अब नही!



लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,

दिलसे धुआँसा उठता है,

चूल्हा तो ठंडा पड़ गया

सीना धीरे धीरे सुलगता है!



बरसती बदरीको मै

बंद खिड्कीसे देखती हूँ

भीगनेसे बचती हूँ

"भिगो मत"कहेनेवाले

कोयीभी मेरे पास नही

तो भीगनेभी मज़ाभी नही...



जब दिन अँधेरे होते हैं

मै रौशन दान जलाती हूँ

अँधेरेसे कतराती हूँ

पास मेरे वो गोदी नही

जहाँ मै सिर छुपा लूँ

वो हाथभी पास नही

जो बालोंपे फिरता था

डरको दूर भगाता था...



खुशबू आती है अब भी,

जब पुराने कपड़ों मे पडी

सूखी मोलश्री मिल जाती

हर सूनीसी दोपहरमे

मेरी साँसों में भर जाती,

कितना याद दिला जाती ...



नन्ही लडकी सामने आती

जिसे आरज़ू थी बडे होनेके

जब दिन छोटे लगते थे,

जब परछाई लम्बी होती थी...





बातेँ पुरानी होकेभी,

लगती हैं कल ही की

जब होठोंपे मुस्कान खिलती है

जब आँखें रिमझिम झरती हैं

जो खो गया ,ढूँढे नही मिलेगा,

बात पतेकी मुझ ही से कहती हैं ....

14 टिप्‍पणियां:

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

वो घर जो अब "वो घर"नही,
अब भी ख्वाबो में आता है
बिलकुल वैसाही दिखता है,
जैसा कि, वो अब नही!

क्षमा जी, अतीत की स्मृति को....
इतने मार्मिक ढंग से पेश किया है....
सच मानिए...दिल भर आया...
और आंखें........
कुछ गुम हो चुके मज़र की तलाश में
अनायास ही सजल हो उठीं.

Udan Tashtari ने कहा…

शायद सबकी व्यथा आपने कह दी इस रचना के माध्यम से...बहुत बढ़िया.

kunwarji's ने कहा…

बिलकुल मेरे घर ओर मन कि बात कह दी जी आपने.....आंसू तो नहीं छलके...पर सोच रहा हूँ कि बिना आंसू छलकाए रोया नहीं जा सकता क्या...?

कुंवर जी,

vandana gupta ने कहा…

अन्दर की पीडा को शब्दों मे बखुबी ढाला है…………मार्मिक चित्रण्।

अरुणेश मिश्र ने कहा…

जो बीत गया वह रीत गया ।
क्षमा जी . आपने स्मृतियों को जीवन्त कर दिया ।
प्रशंसनीय ।

निर्मला कपिला ने कहा…

वो पेड़ नीमका आँगन मे,

जिसपे झूला पड़ता था!

सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,

माँ जो कहानी सुनाती थी!
और
वो घर जो अब "वो घर"नही,
अब भी ख्वाबो में आता है
बिलकुल वैसाही दिखता है,
जैसा कि, वो अब नही!
क्षमा अपने बचपन की याद दिला दी। बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। शुभकामनायें

Dimple ने कहा…

जब दिन अँधेरे होते हैं

मै रौशन दान जलाती हूँ

अँधेरेसे कतराती हूँ

पास मेरे वो गोदी नही

I just simply loved it....!!
Your writings are amazing everytime...

With love,
Regards...
Dimple

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

अरे! ये तो एक नॉस्टैल्गिक जर्नी है... हर किसी से जुड़ी कर किसी के करीब...

ZEAL ने कहा…

बातेँ पुरानी होकेभी,

लगती हैं कल ही की...

ateet ki sundar aur madhur yadein, humare vartamaan ko bhi khoobsurat bana deti hain

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

क्या बात है बहुत अच्छे शब्दों में ढली सुंदर कविता लिख डाली...लेकिन आज ये उदासी का मौसम क्यों छाया है? आप तो कभी उदासी से भरा नहीं लिखती.
हाँ होता हें कभी कभी मन यादो के कुहांसे में आँख-मिचोली खेलता है और बचपन में डुबकियां लगाने लगता है.

सुंदर कविता.

Dr.Ajit ने कहा…

वैसे तो पिछले दो सालो से ब्लाग लिख रहा हू लेकिन लोगो से जुडने और जोडने की तह्जीब और सलीका दोनो मुझ मे नही आया।

शेष फिर (कविताओं का ब्लाग) और खानाबदोश(मेरी फक्कडी का)।

कभी संवेदना मे रची बसी कविता पढने का मन हो तो आप मेरे ब्लाग पर पधार सकती है।
ब्लागिंग के टिप्पणी आदान-प्रदान के शिष्टाचार के मामले मे मै थोडा जाहिल किस्म का इंसान हूं लेकिन आपमे तो बडप्पन है ना...!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अतीत को चित्र की ताहा खींच दिया है आपने .... अनुपम अभिव्यक्ति ....

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

आपने अपनी यादों को शब्दों का जामा पहनाकर एक सुन्दर रचना प्रस्तुत किये हैं ....

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। शुभकामनायें