बाल दिवस के अवसर पे अपने बचपन का कोई किस्सा लिखने का बड़ा मन था. कम्पूटर ख़राब होने के कारण नही लिख पायी. आज जब ठीक हुआ तो लगा अब बहुत देर हो गयी. इसमे वंदना अवस्थी जी का ब्लॉग पढ़ा जहाँ उन्हों ने अपनी स्कूल में मनाये गए बाल दिवस के बारे में आज लिखा. मैंने उन से हौसला लिया और बैठ गयी लिखने!
इस क़िस्सेको बरसों बाद मैंने अपनी दादी को बताया तो वो एक ओर शर्मा, शर्मा के लाल हुई, दूसरी ओर हँसतीं गयीं....इतना कि आँखों से पानी बहने लगा...
मेरी उम्र कुछ रही होगी ४ सालकी। मेरा नैहर गांवमे था/है । बिजली तो होती नही। गर्मियों मे मुझे अपनी दादी या अपनी माँ के पलंग के नीचे लेटना बड़ा अच्छा लगता। मै पहले फर्शको गीले कपडेसे पोंछ लेती और फ़िर उसपे लेट जाती....साथ कभी चित्रोंकी किताब होती या स्लेट । स्लेट पे पेंसिलसे चित्र बनाती मिटाती रहती।
ऐसीही एक दोपहर याद है.....मै दादीके पलंग के नीचे दुबकी हुई थी....कुछ देर बाद माँ और दादी पलंग पे बैठ बतियाने लगी....उसमेसे कुछ अल्फाज़ मेरे कानपे पड़े...बातें हो रही थी किसी अनब्याही लड़कीके बारेमे....उसे शादीसे पहले बच्चा होनेवाला था...उन दोनों की बातों परसे मुझे ये एहसास तो हुआ,कि, ऐसा होना ठीक नही। खैर!
मेरी माँ , खेतपरकी कई औरतोंकी ज़चगी के लिए दौड़ पड़ती। हमारे घरसे ज़रा हटके दादा ने खेतपे काम करनेवालोंके लिए मकान बनवा रखे थे। वहाँसे कोई महिला माँ को बुलाने आती और माँ तुंरत पानी खौलातीं, एक चाकू, एक क़ैचीभी उबालके साथ रख लेती...साथमे २/४ साफ़ सुथरे कपडेके टुकड़े होते....फिर कुछ देरमे पता चलता..."उस औरत" को या तो लड़का हुआ या लडकी....
एक दिन मै अपने बिस्तरपे ऐसेही लोट मटोल कर रही थी...माँ मेरी अलमारीमे इस्त्री किए हुए कपड़े लगा रही थीं....
मुझे उस दोपेहेरवाली बात याद आ गयी..और मै पूछ बैठी," शादीके पहले बच्चा कैसे होता होता है?"
माँ की ओर देखा तो वो काफ़ी हैरान लगीं...मुझे लगा, शायद इन्हें नही पता होगा...ऐसा होना ठीक नही, ये तो उन दोनोकी बातों परसे मै जानही गयी थी...
मैंने सोचा, क्यों न माँ का काम आसन कर दिया जाय..मै बोली," कुछ बुरी बात करतें हैं तो ऐसा होता है?"
" हाँ, हाँ...ठीक कहा तुमने..." माँ ने झटसे कहा और उनका चेहरा कुछ आश्वस्त हुआ।
अब मेरे मनमे आया, ऐसी कौनसी बुरी बात होगी जो बच्चा पैदा हो जाता है.....?
फिर एकबार उनसे मुखातिब हो गयी," अम्मा...कौनसी बुरी बात?"
अब फ़िर एकबार वो कपड़े रखते,रखते रुक गयीं...मेरी तरफ़ बड़े गौरसे देखा....फ़िर एक बार मुझे लगा, शायद येभी इन्हें ना पता हो...मेरे लिए झूट बोलना सबसे अधिक बुरा कहलाया जाता था...
तो मैंने कहा," क्या झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है"?
"हाँ...झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है...अब ज़रा बकबक बंद करो..मुझे अपना काम करने दो.."माँ बोलीं...
वैसे मेरी समझमे नही आया कि , वो सिर्फ़ कपड़े रख रही थीं, कोई पढ़ाई तो कर नही रही थी...तो मेरी बातसे उनका कौनसा काम रुक रहा था? खैर, मै वहाँसे उठ कहीँ और मटरगश्ती करने चली गयी।
इस घटनाके कुछ ही दिनों बादकी बात है...रातमे अपने बिस्तरमे माँ मुझे सुला रहीं थीं....और मेरे पेटमे दर्द होने लगा...हाँ! एक और बात मैं सुना करती...... जब कोई महिला, बस्तीपरसे किसीके ज़चगीकी खबर लाती...वो हमेशा कहती,"...फलाँ, फलाँ के पेटमे दर्द होने लगा है..."
और उसके बाद माँ कुछ दौड़भाग करतीं...और बच्चा दुनियामे हाज़िर !
अब जब मेरा पेट दुखने लगा तो मै परेशाँ हो उठी...मैंने बोला हुआ एक झूट मुझे याद आया...एक दिन पहले मैंने और खेतपरकी एक लड़कीने इमली खाई थी। माँ जब खाना खानेको कहने लगीं, तो दांत खट्टे होनेके कारण मै चबा नही पा रही थी...
माँ ने पूछा," क्यों ,इमली खाई थी ना?"
मैंने पता नही क्यों झूट बोल दिया," नही...नही खाई थी..."
"सच कह रही है? नही खाई? तो फ़िर चबानेमे मुश्किल क्यों हो रही है?" माँ का एक और सवाल...
"भूक नही है...मुझे खाना नही खाना...", मैंने कहना शुरू किया....
इतनेमे दादा वहाँ पोहोंचे...उन्हें लगा शायद माँ ज़बरदस्ती कर रही हैं..उन्होंने टोक दिया," ज़बरदस्ती मत करो...भूक ना हो तो मत खिलाओ..वरना उसका पेट गड़बड़ हो जायेगा"....मै बच गयी।
वैसे मेरे दादा बेहद शिस्त प्रीय व्यक्ती थे। खाना पसंद नही इसलिए नही खाना, ये बात कभी नही चलती..जो बना है वोही खाना होता...लेकिन गर भूक नही है,तो ज़बरदस्ती नही...येभी नियम था...
अब वो सारी बातें मेरे सामने घूम गयीं...मैंने झूट बोला था...और अब मेरा पेटभी दुःख रहा था...मुझे अब बच्चा होगा...मेरी पोल खुल जायेगी...मैंने इमली खाके झूट बोला, ये सारी दुनियाको पता चलेगा....अब मै क्या करुँ?
कुछ देर मुझे थपक, अम्मा, वहाँसे उठ गयीं...
मै धीरेसे उठी और पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चा हुआ तो मै इसे पानीसे बहा दूँगी...किसी को पता नही चलेगा...
लेकिन दर्द ज्यूँ के त्यूँ....एक ४ सालका बच्चा कितनी देर बैठ सकता है....मै फ़िर अपने बिस्तरमे आके लेट गयी....
कुछ देर बाद फ़िर वही किया...पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चे का नामोनिशान नहीं...
अबके जब बिस्तरमे लेटी तो अपने ऊपर रज़ाई ओढ़ ली...सोचा, गर बच्चा हो गया नीन्दमे, तो रज़ाई के भीतर किसीको दिखेगा नही...मै चुपचाप इसका फैसला कर दूँगी...लेकिन उस रात जितनी मैंने ईश्वरसे दुआएँ माँगी, शायद ज़िन्दगीमे कभी नही..
"बस इतनी बार मुझे माफ़ कर दे...फिर कभी झूठ नही बोलूँगी....मै इस बच्चे का क्या करूँगी? सब लोग मुझपे कितना हँसेंगे? ".....जब, जब आँख खुलती, मै ऊपरवालेके आगे गुहार लगाती और रज़ाई टटोल लेती...
खैर, सुबह मैंने फ़िर एकबार रज़ायीमे हाथ डाला और टटोला...... कुछ नही था..पेट दर्द भी नही था...ऊपरवालेने मेरी सुन ली...!!!!
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31 टिप्पणियां:
ओहो हो ..ओहो हो हो हो .... हँसते हँसते पेट में दर्द होने लगा ...
क्या किस्सा है ... ज़बरदस्त ! मासूम बच्ची के दिमाग में भी क्या क्या बात चलती रहती है ...
वह ... मज़ा आ गया पढ़ कर ... बचपन भी कैसी कैसी शरारतें कराता है ...
हा हा हा हा हा ..क्षमा जी आप भी न मस्त हो एकदम क्या मासूमियत से पूरा वाकया लिखा है जबर्दस्त्त .हा हा हा हा .
Kshama jee, ek behad pareshan karne wale lamhe ko aapne kitne masumiyat se jeeya...............:)
issi ko bal-man kahte hain
aapki childish nature ko salam!!
:) :) :) बहुत मासूमियत से लिखी गयी पोस्ट ...बच्चे ऐसे ही होते हैं मासूम ....बहुत मजेदार किस्सा रहा ..
मैं तो अपनी हंसी रोक नहीं पा रहा हू. न जाने क्या क्या ब्च्चों के दिमाग में चलता रहता है.
... uffff ... kyaa kissaa hai !!!
ला-जवाब" जबर्दस्त!!
.........मज़ा आ गया पढ़ कर
बचपन की यही मासूमियत ही तो हमेशा याद रहती हैं……………बेहद मज़ेदार किस्सा……………हंस रही हूँ और सोच रही हूं कि उस वक्त आपने अपने घर मे ये बात क्यूँ नही बताई अगर बता देतीं तो क्या होता वो नज़ारा इससे जुदा न होता………है ना।
पोस्ट पढ़कर आपके बचपन की सादगी पर हंसी भी आती है...
और ये सोचने पर भी विवश होना पड़ता है कि आज के बचपन को टीवी जैसे साधनों ने कितना कुछ सिखा दिया है.
हँसी रुके तो कुछ कहूँ... लेकिन बात बिलकुल सच है..फ़िल्में तो हम छुटपन से देखते हैं और कई फ़िल्मों में ऐसे सीन होते हैं कि किसका बच्चा लिए घूम रही है कुलच्छिनी.. तब हमेशा सोचता था कि किसी से उसने चुपके सए शादी कर ली होगी, घर पर नहीं बताया होगाइसलिए माँ गुस्सा कर रही है.. क्योंकि बच्चा तो शादी के बाद ही होता है!!
मगर आपका बचपना, बाल दिवस के सारे किस्सों में अनोखा है!!
hA hA
:P
ही ही ही... हां हाह हां... हे भगवान... मुझे तो सोच-सोचकर हंसी आ रही है...
बहुत सही... इस याद और बचपन को शेयर करने का कार्डिक धन्यवाद...
बहुत खूब...
ha ha ha ha...........
maza aa gya!!
हा हा हा । मस्त पोस्ट।
बचपन के ऐसे संस्मरण ज्यादातर लोग शेयर नही करते... लेकिन उस उम्र सच्चाई में प्यारी सी मुस्कान हमेशा छिपी रहती है...
यहाँ तो हँसी छिपी थी.. जिन लोगों के पेट दुख गये हँसते हुए... वो क्षमा जी की बातों पर कृपया गौर फरमायें.. कि उनका भी पेट दुख रहा था..
हा हा हा
bachpan aisa hi to hota hai .
bahut sahi sansmarn.
अरे वाह दी.. क्या कमाल का संस्मरण है. एकदम बच्चों सा मासूम. बहुत मज़ा आया पढ के. मेरी पोस्ट ने आपको हौसला दिया, ये पढ के तो मज़ा दोगुना हो गया :)
बचपन के उस मासूम से लम्हे को बांटने के लिए धन्यवाद. मजा आ गया. आभार.
सादर,
डोरोथी.
मासूम मन की निश्छल अभिव्यक्ति। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
विचार::आज महिला हिंसा विरोधी दिवस है
waah shama ji
ye sansmaran padhkar beete dino ki yaad chali aayi .. bahut badhayi .. aajkal kavita nahi likh rahi hai aap ? aapki health ab kaisi hai ..
aabhaar
vijay
kavitao ke man se ...
pls visit my blog - poemsofvijay.blogspot.com
Ha Ha Ha! What an innocence! This innocence of children is what makes this earth beautiful. Thank you for the beautiful post.
kitni masoom aapbiti hai.
कैसे रोकूँ हंसी मैं?
हा हा ह..
बहुत अच्छा संस्मरण रहा ये...मजेदार, मासूम और मस्त...एकदम मस्त..:)
बचपन के दिन भी अजीब होते है
मोगैम्बो ख़ुश हुआ...! बहुत अच्छा लगा।
बहुत ही मासूम सी प्रस्तुति जिसे पढ़कर बहुत ही अच्छा लगा ...बहुत-बहुत बधाई सुन्दर लेखन के लिए ...।
अच्छा संस्मरण बहुत-बहुत बधाई सुन्दर लेखन के लिए
मजा आ गया पढ कर...... अपने बचपन के कई किस्से याद आने लगे ! बहुत खूब अच्छी रचना ...!
Hello ji,
Innocence :)
Really well written and I am sure everyone went to their own childhood sweetness!!
:)
Regards,
Dimple
bachpana yaad dila diya aapne....:) thanks!!!
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