क्षमा प्रार्थी हूँ,की, एक पुरानी रचना पेश कर रही हूँ....!
सुना ,दीवारों के होते हैं कान ,
काश होती आँखें और लब!
मै इनसे गुफ्तगू करती,
खामोशियाँ गूंजती हैं इतनी,
किससे बोलूँ? कोई है ही नही..
आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...
सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...