क्षमा प्रार्थी हूँ,की, एक पुरानी रचना पेश कर रही हूँ....!
सुना ,दीवारों के होते हैं कान ,
काश होती आँखें और लब!
मै इनसे गुफ्तगू करती,
खामोशियाँ गूंजती हैं इतनी,
किससे बोलूँ? कोई है ही नही..
आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...
सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...
20 टिप्पणियां:
पुरानी है लेकिन बह्त उम्दा..
जिन्दगी की तन्हाई को शब्द दी है आपने...बहुत ही सुन्दर..
कितना बोल रही है ये दीवार पर सजी कृति भी , सजाये रखना ये बगिया ...आयेंगे जाने वाले भी ..इंतज़ार को महकाए रखना ...सुन्दर है कविता ....
सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...
और इसी सच के साथ जीना पडता है…………एक कटु सत्य को उजागर कर दिया…………।बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति।
बहुत सुन्दर रचना प्रकाशित की है
आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...
वाह कमाल की पँक्तियाँ हैं पूरी रचना भावमय सुन्दर है। बधाई।
सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...
मन की कशक और व्यथा की बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..बहुत सुन्दर
अकथ वेदना ,अहर्निश इंतज़ार
आपकी यह विधा अनुपम और अद्वितीय है -कला के साथ कविता का मणि कांचन विरला संयोग !
पुरानी नहीं है कविता.आप इन संतापों को भुगत रहीं हैं,हमारे जैसे कई भविष्य में भोगेगें .
नयी है आप की कविता. और जैसा वक्त है ,लगता है सदा नयी रहेगी.
आपकी कलम को सलाम.
सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...
कदमों की आहत का इंतेज़ार तो सभी को रहता है ... अकेलेपन में कोई साथी हर कोई चाहता है ... अच्छी रचना है ..
पुरनी ही सही कविता, भाव हमेशा नये हैं!! आपकी कलाकृति और कविता दोनों लाजवाब!!
तन्हाई और इंतज़ार ..खूबसूरत शब्द दिए हैं आपने.
मर्मस्पर्शी रचना..और कृति भी बेहद खूबसूरत.
सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...
old is gold hum to bas yahi kahenge ,bahut sundar .
सुना ,दीवारों के होते हैं कान ,
काश होती आँखें और लब!
इतना ही काफी है ..वर्ना हालत बदतर होते ..अर्थपूर्ण रचना शुक्रिया
आपकी पुरानी रचना भी आनंद देती है ... और कढ़ाई तो है ही लाजवाब !
बहुत ही सुंदर कविता और बहुत ही गहरे भाव !
बहुत सुन्दर कढ़ाई किया हुआ चित्र के साथ एक बहुत ही सुन्दर रचना । बधाई स्वीकारे ।
क्षमा जी सादर नमस्कार .बहुत सुन्दर कविता के लिए आपको बहुत बहुत बधाई |
क्षमा जी सादर नमस्कार .बहुत सुन्दर कविता के लिए आपको बहुत बहुत बधाई |
ati bhavpuran....
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