शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

दीवारें बोलती नही..

क्षमा प्रार्थी हूँ,की, एक पुरानी रचना पेश कर रही हूँ....!


खादी सिल्क से दीवारें तथा रास्ता बनाया है..क्रोशिये की बेलें हैं..और हाथसे काढ़े हैं कुछ फूल-पौधे..बगीचे मे रखा statue plaster ऑफ़ Paris से बनाया हुआ है..

 सुना ,दीवारों  के  होते  हैं  कान ,
काश  होती  आँखें और लब!
मै इनसे गुफ्तगू   करती,
खामोशियाँ गूंजती हैं इतनी,
किससे बोलूँ? कोई है ही  नही..

आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं  मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...

सजी बगिया को ,रहता है  फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर  कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...


20 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

पुरानी है लेकिन बह्त उम्दा..

Arun sathi ने कहा…

जिन्दगी की तन्हाई को शब्द दी है आपने...बहुत ही सुन्दर..

शारदा अरोरा ने कहा…

कितना बोल रही है ये दीवार पर सजी कृति भी , सजाये रखना ये बगिया ...आयेंगे जाने वाले भी ..इंतज़ार को महकाए रखना ...सुन्दर है कविता ....

vandana gupta ने कहा…

सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...


और इसी सच के साथ जीना पडता है…………एक कटु सत्य को उजागर कर दिया…………।बेहद मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति।

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना प्रकाशित की है

संजय भास्‍कर ने कहा…

आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...
वाह कमाल की पँक्तियाँ हैं पूरी रचना भावमय सुन्दर है। बधाई।

Kailash Sharma ने कहा…

सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...

मन की कशक और व्यथा की बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..बहुत सुन्दर

Arvind Mishra ने कहा…

अकथ वेदना ,अहर्निश इंतज़ार
आपकी यह विधा अनुपम और अद्वितीय है -कला के साथ कविता का मणि कांचन विरला संयोग !

विशाल ने कहा…

पुरानी नहीं है कविता.आप इन संतापों को भुगत रहीं हैं,हमारे जैसे कई भविष्य में भोगेगें .
नयी है आप की कविता. और जैसा वक्त है ,लगता है सदा नयी रहेगी.
आपकी कलम को सलाम.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...

कदमों की आहत का इंतेज़ार तो सभी को रहता है ... अकेलेपन में कोई साथी हर कोई चाहता है ... अच्छी रचना है ..

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

पुरनी ही सही कविता, भाव हमेशा नये हैं!! आपकी कलाकृति और कविता दोनों लाजवाब!!

shikha varshney ने कहा…

तन्हाई और इंतज़ार ..खूबसूरत शब्द दिए हैं आपने.
मर्मस्पर्शी रचना..और कृति भी बेहद खूबसूरत.

ज्योति सिंह ने कहा…

सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...
old is gold hum to bas yahi kahenge ,bahut sundar .

केवल राम ने कहा…

सुना ,दीवारों के होते हैं कान ,
काश होती आँखें और लब!

इतना ही काफी है ..वर्ना हालत बदतर होते ..अर्थपूर्ण रचना शुक्रिया

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

आपकी पुरानी रचना भी आनंद देती है ... और कढ़ाई तो है ही लाजवाब !

Dr Varsha Singh ने कहा…

बहुत ही सुंदर कविता और बहुत ही गहरे भाव !

dipayan ने कहा…

बहुत सुन्दर कढ़ाई किया हुआ चित्र के साथ एक बहुत ही सुन्दर रचना । बधाई स्वीकारे ।

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

क्षमा जी सादर नमस्कार .बहुत सुन्दर कविता के लिए आपको बहुत बहुत बधाई |

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

क्षमा जी सादर नमस्कार .बहुत सुन्दर कविता के लिए आपको बहुत बहुत बधाई |

neelima garg ने कहा…

ati bhavpuran....