सिल्क के चंद टुकड़े जोड़ इस चित्र की पार्श्वभूमी बनाई. उस के ऊपर दिया और बाती रंगीन सिल्क तथा कढाई के ज़रिये बना ली. फ्रेम मेरे पास पहले से मौजूद थी. बल्कि झरोखानुमा फ्रेम देख मुझे लगा इसमें दिए के सिवा और कुछ ना जचेगा.बना रही थी की,ये पंक्तियाँ ज़ेहन में छाती गयीं....
रहगुज़र हो ना हो,जलना मेरा काम है,
जो झरोखों में हर रात जलाई जाती है,
ऐसी इक शमा हूँ मै..शमा हूँ मै...
परछाईयों संग झूमती रहती हूँ मै,
सदियों मेरे नसीब अँधेरे हैं,
सेहर होते ही बुझाई जाती हूँ मै...
33 टिप्पणियां:
सहर होते ही शमा का रोल भी पूरा हो जाता है --सुन्दर कलाकृति!
शमा यूँ ही जलती रहे, विश्वास बना रहे।
khoobsoorat kalakriti ...shama ka dard shama hi jaanti hai ..kisne dekha hai shama ko boond boond mitate hue ....
बहुत खूबसूरत ...
मैंने भी कभी कुछ लिखा था ..
मैं शमादान की
अधजली शमा हूँ
अँधेरा होते ही
जला ली जाती हूँ मैं
और उजेरा होते ही
एक फूंक से बुझा दी जाती हूँ ....
वाह! क्या रोशन बयाँ है!
सुन्दर आकृति और पंक्तियाँ...
सादर...
bahot sunder.
शमा से तो हर किसी को प्रेरणा लेनी चाहिए। खुद जलकर रौशनी करना औरों की खातिर ही उसकी फितरत है।
परछाईयों संग झूमती रहती हूँ मै,
सदियों मेरे नसीब अँधेरे हैं,
सेहर होते ही बुझाई जाती हूँ मै...
गहरे उतरते शब्द ...बहुत ही अच्छी प्रस्तुति, आभार ।
आपने बेहद खूबसूरती से समय का सदुपयोग किया है
पढ़िये नई कविता : कविता का विषय
bahut khppbsoorat .
बहुत सुंदर प्रस्तुति।
बेहद सुन्दर लिखा है आपने... क्या बात है ..
बहुत सुन्दर भाववान रचना...
बहुत ख़ूबसूरत...
एक बात माननी होगी .. आपमें गजब का धैर्य है ... इतनी सुन्दर कलाकृति ... वाह !
क्षमाजी!
और कुदरत का करिश्मा देखिए कि जिसके सामने जाती है शमा वह रोशनी से नहा उठता है...महफिलों में उसके लिए वाह वाह के झूमर जगमगा उठते हैं।
कभी गालिब के सामने आई शमा तो कभी मीरे के, कभी मोमिन के सामने रखी गई. बहादुर शाह जैसे बादशाह शायर के सामने ,,,साहिर , शकील ,हसरत से लेकर गुलजार और निदा और बशीर और राना और ..ये सिलसिला रुकता ही नहीं है...शमा जिन्दाबाद!
शमा का बुझना उसके मक़साद की कामयाबी है.. अकेली तीरगी से लड़ाती सारी रात फिर भी हार नहीं मानती!!
हम दोनों दोस्तों के परिवार की तरफस ए आपको ईद मुबारक!!
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 01-09 - 2011 को यहाँ भी है
...नयी पुरानी हलचल में आज ... दो पग तेरे , दो पग मेरे
गजब की कलाकृति - अद्भुत प्रस्तुति
shama ki baat ho ya zindgi ka safar, bas chalte jana hai jalte jana hai...shubhkaamnaayen.
आप तो ग़ज़ब की कलाकार हैं.
शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक ...
बहुत खूब
सजाया , सँवारा , निखारा है
और बहुत ही खूब
पढवाया है ...
वाह !
बहुत खूबसूरत कढ़ाई भी एवम रचना भी
शमा जी
नमस्कार
बहुत ही अच्छी कढाई और फ्रेम वर्क है . आपकी कला को तो देख चूका हूँ , बहुत अच्छा लगा. और आपकी नज़्म भी प्यारी सी है ..
बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
परछाईयों संग झूमती रहती हूँ मै,
सदियों मेरे नसीब अँधेरे हैं,
सेहर होते ही बुझाई जाती हूँ मै...
शाम तो सहर आने तक ही जलती है ... बेहद लाजवाब चित्रकारी है ....
bahot sunder.
सुंदर कृति.
जीवन के यथार्थ को बयां करती सार्थक प्रस्तुति।
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कब तक ढ़ोना है मम्मी, यह बस्ते का भार?
आओ लल्लू, आओ पलल्लू, सुनलो नई कहानी।
क्षमा जी, शायद आपने ब्लॉग के लिए ज़रूरी चीजें अभी तक नहीं देखीं। यहाँ आपके काम की बहुत सारी चीजें हैं।
Beautiful!!!
सुंदर।
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