बुधवार, 10 जुलाई 2013

नज़रे इनायत नहीं



पार्श्वभूमी  बनी  है , घरमे पड़े चंद रेशम के टुकड़ों से..किसी का लहंगा,तो किसी का कुर्ता..यहाँ  बने है जीवन साथी..हाथ से काता गया सूत..चंद, धागे, कुछ डोरियाँ और कढ़ाई..इसे देख एक रचना मनमे लहराई..

एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
 बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..

बहारों की  नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..

14 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

एक बसंत जो खामोश गुज़र गया -और गुज़रते वक्त बुलाया भी न गया !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

भड़भड़ करती इस दुनिया में, आओ जीवन राग ढूढ़ लें,
संबंधों की भीड़भाड़ में, अपने हेतु विराग ढूढ़ लें।

Rajendra kumar ने कहा…

बहुत ही सार्थक और सुन्दर प्रस्तुती,सादर ।

आपकी यह रचना आज गुरुवार (11-07-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

Unknown ने कहा…

वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत मर्मस्पर्शी रचना....

बेनामी ने कहा…

सुन्दर भाव !

दिगम्बर नासवा ने कहा…

छूती है मर्म को ... पर फिर भी ऐसे पेड़ काम आते हैं ... चाहे किसी घर के ड्राइंग रूम मरीन या किरोशिये से सजने के लिए ...
खामोशी की दास्तां ....

राज चौहान ने कहा…

हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे
बहुत मर्मस्पर्शी रचना....


@ राज चौहान
क्योंकि सपना है अभी भी
http://rajkumarchuhan.blogspot.in

सदा ने कहा…

मन को छूती अभिव्‍यक्ति ...

shyam gupta ने कहा…



तवै तुमि एकला चलोरे ....

बेनामी ने कहा…

समय समय का फेर है समय समय की बात
किसी समय का दिन बड़ा किसी समय की रात

Satish Saxena ने कहा…

सुंदर रचना..

Asha Joglekar ने कहा…

बहारें पिर भी आयेंगी ।

Satish Saxena ने कहा…

बड़े सरल शब्दों में सरल अभिव्यक्ति ..
बधाई !