शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

वक़्त की धारा


कब,कौन पूछता मरज़ी उसकी,
अग्नी से, वो क्या जलाना चाहे है,
जहाँ लगाई,दिल या दामन,जला गयी!

कुम्हार आँगन बरसी जलभरी बदरी,
थिरक,थिरक गीले मटके  तोड़ गयी..
सूरज से सूखी खेती तरस गयी !

कलियों का बचपन ,फूलों की  जवानी,
वक़्त की निर्मम धारा बहा गयी,
थकी, दराज़ उम्र को पीछे छोड़ गयी...

24 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

वक्त बहुत कुछ बहा कर ले जाता है अपने साथ

Satish Saxena ने कहा…

वक्त बहुत निर्मम है !
शुभकामनायें आपको !

Atul Shrivastava ने कहा…

भावनाओं का बेहतरीन प्रस्‍तुतिकरण।
शब्‍दों का सटीक प्रयोग।

मनोज कुमार ने कहा…

समय के क्रूर पंजों ने आज हमसे बहुत कुछ छीन लिया है ... कविता ने बिम्बों के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया है सीमित पंक्तियों में ही।

Arvind Mishra ने कहा…

यह जीवन की वह गुत्थी है जो आज तक न सुलझ पायी ..लोग कहते हैं प्रारब्ध(पिछले जन्म ) का भोग दंड है ..मगर मैं मानता हूँ बस संयोग है जिसे हम दुर्भाग्य भी कह सकते हैं और यह भी कि मनुष्य के हाथ कुछ नहीं है ..मनुष्य एक निमित्त मात्र है ...यह सब मनुष्य को इसी सकारात्मक भावना से लेना चाहिए कि उसकी कहाँ गलती है? और फिर जब उसकी गलती नहीं तो वह खुद को क्यों कोसे ? क्यों अधमारा रख कर अपने को रखे ? कुम्हार क्यों पछताए ? क्यों न फिर वह दुगुने उत्साह से अपने काम में लग जाय .....काफी दिनों बाद इतनी अच्छी कविता पढ़ा तो मन विवेचन को उत्साहित हो उठा !
यह जीवन की वह गुत्थी है जो आज तक न सुलझ पायी ..लोग कहते हैं प्रारब्ध(पिछले जन्म ) का भोग दंड है ..मगर मैं मानता हूँ बस संयोग है जिसे हम दुर्भाग्य भी कह सकते हैं और यह भी कि मनुष्य के हाथ कुछ नहीं है ..मनुष्य एक निमित्त मात्र है ...यह सब मनुष्य को इसी सकारात्मक भावना से लेना चाहिए कि उसकी कहाँ गलती है? और फिर जब उसकी गलती नहीं तो वह खुद को क्यों कोसे ? क्यों अधमारा रख कर अपने को रखे ? कुम्हार क्यों पछताए ? क्यों न फिर वह दुगुने उत्साह से अपने काम में लग जाय .....काफी दिनों बाद इतनी अच्छी कविता पढ़ा तो मन विवेचन को उत्साहित हो उठा !

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

अच्‍छा चिंतन।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वापस मुड़कर देखना कितना दार्शनिक हो सकता है।

mridula pradhan ने कहा…

bahut achchi lagi.....

vandana gupta ने कहा…

ओह्…………कितना गहन चिन्तन है।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

जो भी करें उसे प्रभु की इच्छा मानकर और मैं कर रहा हूँ ऐसा ना मानते हुए करें तो परिणाम का प्रभाव कभी भी उद्वेलित नहीं करता और न ही अहंकार प्रदान करता है कि यह मैंने किया..
होता यह है कि अच्छे किये गए कार्य की श्रेय हम स्वयं को देते हैं और उसके सुखद परिणाम के फल का अधिकारी स्वयं को मान लेते हैं, जबकि उसके दुष्परिणाम और कडवे फल के लिए परमात्मा को दोष देने लगते हैं.
एक नयी सोच को जन्म देने वाली कविता!!

shikha varshney ने कहा…

सुन्दर चिंतन.

सदा ने कहा…

गहन भावों का समावेश ... मेरे ब्‍लॉग पर आपका प्रोत्‍साहन ..‍हमेशा मन का सुकून देता है ..आपका बहुत-बहुत आभार ।

ZEAL ने कहा…

behatreen prastuti...aabhaar.

Dimple ने कहा…

Hello,

It was really touchy and too much depth in the words that you've used...
Brilliant composition...
Regards,
Dimple

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कुछ सच्चाई कुछ उदासी लिए ... गज़ब की पंक्तियाँ हैं ये ...

BrijmohanShrivastava ने कहा…

दीपावली केशुभअवसर पर मेरी ओर से भी , कृपया , शुभकामनायें स्वीकार करें

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

मार्मिक।

Dr.NISHA MAHARANA ने कहा…

कलियों का बचपन ,फूलों की जवानी,
वक़्त की निर्मम धारा बहा गयी.
गज़ब की पंक्तियाँ हैं.

Human ने कहा…

यथार्त चिंतन संप्रेषित करती रचना
आपको सपरिवार दीपावली व नववर्ष की शुभकामनाएं !

मेरे भाव ने कहा…

गंभीर कविता...

निर्मला कपिला ने कहा…

गहरे भाव।ाति सुन्दर।

Murari Pareek ने कहा…

वक़्त का दरिया अपने साथ उम्र बहा ले जाता है... सुन्दर पक्तियां.. शुद्ध खरी बात...

निर्झर'नीर ने कहा…

गहन चिन्तन,गहन भाव,बेहतरीन प्रस्‍तुति

Rishi ने कहा…

कुम्हार आँगन बरसी जलभरी बदरी,
थिरक,थिरक गीले मटके तोड़ गयी..
सूरज से सूखी खेती तरस गयी !


bhut gehri...bhut khubsoorat..!!