
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..
बहारों की नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..
5 टिप्पणियां:
हर मिलन का अंत का जुदाई क्यूँ है ...हर बहार पतझड़ ले कर क्यूँ आती है ...इन सवालों के घेरे में निराशा ही मिलती है ...इस में कोई रंग भर लो ताकि अपने अंदर कोई सुहावना मौसम टिका रहे ....आपने बहुत अच्छी अभिव्यक्ति दी है...इस मूक चित्र को भी ...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (19-04-2014) को ""फिर लौटोगे तुम यहाँ, लेकर रूप नवीन" (चर्चा मंच-1587) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कौन जाने किस घड़ी, वक़्त का बदले मिजाज़..!! बी पॉज़िटिव!! आपकी गतिविधियाम दिख रही हैं इन दिनों, यह एक अच्छा शगुन है. चश्मेबद्दूर!!
काव्य अच्छा लगा। दो पंक्तियाँ एक प्रतिकाव्य से हाजिर हैं:
अंधड़ चलै, तूफ़ान मचायै कितनी भगदड़।
आवेगा वसंत पुनः, जावैगा पतझड़।।
पेड़ तो फिर भी रहता है और इंतज़ार भी रहता है जो कभी खत्म नहीं होता ... बहारें भी लौटती हैं बस समय का इंतज़ार होना चाहिए ...
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