कब,कौन पूछता मरज़ी उसकी,
अग्नी से, वो क्या जलाना चाहे है,
जहाँ लगाई,दिल या दामन,जला गयी!
कुम्हार आँगन बरसी जलभरी बदरी,
थिरक,थिरक गीले मटके तोड़ गयी..
सूरज से सूखी खेती तरस गयी !
कलियों का बचपन ,फूलों की जवानी,
वक़्त की निर्मम धारा बहा गयी,
थकी, दराज़ उम्र को पीछे छोड़ गयी...
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
19 टिप्पणियां:
वाह बहुत खूब ....
कुम्हार आँगन बरसी जलभरी बदरी,
थिरक,थिरक गीले मटके तोड़ गयी..
सूरज से सूखी खेती तरस गयी !
क्या बात है ... लाजवाब !
Hello ji,
Kya imagination hai!!!
"जहाँ लगाई,दिल या दामन,जला गयी!"
Bahut hi badiya :)
Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com
एक अच्छा कॉन्ट्रास्ट दिखाया है आपने इस कविता में...दिल और दामन तथा कुम्भकार और किसान का... कच्चे बर्तनों का बारिश से टूटना और बिना बारिश खेतों का सूखना... बहुत बढिया...
bahut hi umdaah rachna.....
badhai....
regards...
http://i555.blogspot.com/
कुम्हार आँगन बरसी जलभरी बदरी,
थिरक,थिरक गीले मटके तोड़ गयी..
सूरज से सूखी खेती तरस गयी !
यही आसमनता जीवन है जिसे कोइ समझ नही सका.
वक्त बड़ी हस्ती है...
अगली दफा एक उत्साह से लबरेज कविता की उम्मीद....
'वक़्त की निर्मम धारा' किसी को नहीं छोडती. आवश्यकता है उसे अनकूल दिशा देने की.
bahut sunder tareeke se apne bhavo ko hamesha kee tarah abhivykt kiya hai aapne....
aabhar .
वक्त को कब कौन रोक पाया है....बहुत खूबसूरती से लिखा है..
वक्त की धारा के आगे सभी अपने को असहाय पते हैं.
..अच्छे भाव.
समय कि ये निष्ठुरता भी कितनी सरलता से बता दी,शब्दों का संयोजन सच में लाजवाब रहा!
कुंवर जी,
यहाँ किसी की मर्जी ना ही पूछी जाती ना ही किसी की मर्जी चलती - शानदार शब्द और भावों के लिए आभार - अति सुंदर
निसर्ग की निर्ममता पर मर्मस्पर्शी संबोधन !
वक़्त की निर्मम धारा बहा गयी,
थकी, दराज़ उम्र को पीछे छोड़ गयी... वक़्त से सबको हार माननी पड़ती है,गहरे से गहरा ज़ख्म भी वक़्त भर ही देता है...
bahut khubsurti se bhavon ko shabdon men piroya hai aapne ..behtareen
aap ka dhanaywaad
puri baat pakdne ke liye aap ko mere pichle post par jana hoga.
..अच्छे भाव.
bahut khoobsurat kavita hai badhai
कुम्हार आँगन बरसी जलभरी बदरी,
थिरक,थिरक गीले मटके तोड़ गयी..
सूरज से सूखी खेती तरस गयी
kamaal ki likhi hai ,bahut achchhi
एक टिप्पणी भेजें