सोमवार, 22 नवंबर 2010

झूठ बोले तो...!

बाल दिवस के अवसर पे अपने बचपन का कोई किस्सा लिखने का बड़ा मन था. कम्पूटर ख़राब होने के कारण नही लिख पायी. आज जब ठीक हुआ तो लगा अब बहुत देर हो गयी. इसमे वंदना अवस्थी जी का ब्लॉग पढ़ा जहाँ उन्हों ने अपनी स्कूल में मनाये गए बाल दिवस के बारे में आज लिखा. मैंने उन से हौसला लिया और बैठ गयी लिखने!

इस क़िस्सेको बरसों बाद मैंने अपनी दादी को बताया तो वो एक ओर शर्मा, शर्मा के लाल हुई, दूसरी ओर हँसतीं गयीं....इतना कि आँखों से पानी बहने लगा...

मेरी उम्र कुछ रही होगी ४ सालकी। मेरा नैहर गांवमे था/है । बिजली तो होती नही। गर्मियों मे मुझे अपनी दादी या अपनी माँ के पलंग के नीचे लेटना बड़ा अच्छा लगता। मै पहले फर्शको गीले कपडेसे पोंछ लेती और फ़िर उसपे लेट जाती....साथ कभी चित्रोंकी किताब होती या स्लेट । स्लेट पे पेंसिलसे चित्र बनाती मिटाती रहती।

ऐसीही एक दोपहर याद है.....मै दादीके पलंग के नीचे दुबकी हुई थी....कुछ देर बाद माँ और दादी पलंग पे बैठ बतियाने लगी....उसमेसे कुछ अल्फाज़ मेरे कानपे पड़े...बातें हो रही थी किसी अनब्याही लड़कीके बारेमे....उसे शादीसे पहले बच्चा होनेवाला था...उन दोनों की बातों परसे मुझे ये एहसास तो हुआ,कि, ऐसा होना ठीक नही। खैर!

मेरी माँ , खेतपरकी कई औरतोंकी ज़चगी के लिए दौड़ पड़ती। हमारे घरसे ज़रा हटके दादा ने खेतपे काम करनेवालोंके लिए मकान बनवा रखे थे। वहाँसे कोई महिला माँ को बुलाने आती और माँ तुंरत पानी खौलातीं, एक चाकू, एक क़ैचीभी उबालके साथ रख लेती...साथमे २/४ साफ़ सुथरे कपडेके टुकड़े होते....फिर कुछ देरमे पता चलता..."उस औरत" को या तो लड़का हुआ या लडकी....

एक दिन मै अपने बिस्तरपे ऐसेही लोट मटोल कर रही थी...माँ मेरी अलमारीमे इस्त्री किए हुए कपड़े लगा रही थीं....
मुझे उस दोपेहेरवाली बात याद आ गयी..और मै पूछ बैठी," शादीके पहले बच्चा कैसे होता होता है?"
माँ की ओर देखा तो वो काफ़ी हैरान लगीं...मुझे लगा, शायद इन्हें नही पता होगा...ऐसा होना ठीक नही, ये तो उन दोनोकी बातों परसे मै जानही गयी थी...

मैंने सोचा, क्यों न माँ का काम आसन कर दिया जाय..मै बोली," कुछ बुरी बात करतें हैं तो ऐसा होता है?"
" हाँ, हाँ...ठीक कहा तुमने..." माँ ने झटसे कहा और उनका चेहरा कुछ आश्वस्त हुआ।
अब मेरे मनमे आया, ऐसी कौनसी बुरी बात होगी जो बच्चा पैदा हो जाता है.....?
फिर एकबार उनसे मुखातिब हो गयी," अम्मा...कौनसी बुरी बात?"

अब फ़िर एकबार वो कपड़े रखते,रखते रुक गयीं...मेरी तरफ़ बड़े गौरसे देखा....फ़िर एक बार मुझे लगा, शायद येभी इन्हें ना पता हो...मेरे लिए झूट बोलना सबसे अधिक बुरा कहलाया जाता था...
तो मैंने कहा," क्या झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है"?
"हाँ...झूट बोलते हैं तो ऐसा होता है...अब ज़रा बकबक बंद करो..मुझे अपना काम करने दो.."माँ बोलीं...

वैसे मेरी समझमे नही आया कि , वो सिर्फ़ कपड़े रख रही थीं, कोई पढ़ाई तो कर नही रही थी...तो मेरी बातसे उनका कौनसा काम रुक रहा था? खैर, मै वहाँसे उठ कहीँ और मटरगश्ती करने चली गयी।

इस घटनाके कुछ ही दिनों बादकी बात है...रातमे अपने बिस्तरमे माँ मुझे सुला रहीं थीं....और मेरे पेटमे दर्द होने लगा...हाँ! एक और बात मैं सुना करती...... जब कोई महिला, बस्तीपरसे किसीके ज़चगीकी खबर लाती...वो हमेशा कहती,"...फलाँ, फलाँ के पेटमे दर्द होने लगा है..."
और उसके बाद माँ कुछ दौड़भाग करतीं...और बच्चा दुनियामे हाज़िर !

अब जब मेरा पेट दुखने लगा तो मै परेशाँ हो उठी...मैंने बोला हुआ एक झूट मुझे याद आया...एक दिन पहले मैंने और खेतपरकी एक लड़कीने इमली खाई थी। माँ जब खाना खानेको कहने लगीं, तो दांत खट्टे होनेके कारण मै चबा नही पा रही थी...
माँ ने पूछा," क्यों ,इमली खाई थी ना?"
मैंने पता नही क्यों झूट बोल दिया," नही...नही खाई थी..."
"सच कह रही है? नही खाई? तो फ़िर चबानेमे मुश्किल क्यों हो रही है?" माँ का एक और सवाल...
"भूक नही है...मुझे खाना नही खाना...", मैंने कहना शुरू किया....

इतनेमे दादा वहाँ पोहोंचे...उन्हें लगा शायद माँ ज़बरदस्ती कर रही हैं..उन्होंने टोक दिया," ज़बरदस्ती मत करो...भूक ना हो तो मत खिलाओ..वरना उसका पेट गड़बड़ हो जायेगा"....मै बच गयी।
वैसे मेरे दादा बेहद शिस्त प्रीय व्यक्ती थे। खाना पसंद नही इसलिए नही खाना, ये बात कभी नही चलती..जो बना है वोही खाना होता...लेकिन गर भूक नही है,तो ज़बरदस्ती नही...येभी नियम था...

अब वो सारी बातें मेरे सामने घूम गयीं...मैंने झूट बोला था...और अब मेरा पेटभी दुःख रहा था...मुझे अब बच्चा होगा...मेरी पोल खुल जायेगी...मैंने इमली खाके झूट बोला, ये सारी दुनियाको पता चलेगा....अब मै क्या करुँ?
कुछ देर मुझे थपक, अम्मा, वहाँसे उठ गयीं...

मै धीरेसे उठी और पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चा हुआ तो मै इसे पानीसे बहा दूँगी...किसी को पता नही चलेगा...
लेकिन दर्द ज्यूँ के त्यूँ....एक ४ सालका बच्चा कितनी देर बैठ सकता है....मै फ़िर अपने बिस्तरमे आके लेट गयी....
कुछ देर बाद फ़िर वही किया...पाखानेमे जाके बैठ गयी...बच्चे का नामोनिशान नहीं...

अबके जब बिस्तरमे लेटी तो अपने ऊपर रज़ाई ओढ़ ली...सोचा, गर बच्चा हो गया नीन्दमे, तो रज़ाई के भीतर किसीको दिखेगा नही...मै चुपचाप इसका फैसला कर दूँगी...लेकिन उस रात जितनी मैंने ईश्वरसे दुआएँ माँगी, शायद ज़िन्दगीमे कभी नही..
"बस इतनी बार मुझे माफ़ कर दे...फिर कभी झूठ   नही बोलूँगी....मै इस बच्चे का क्या करूँगी? सब लोग मुझपे कितना हँसेंगे? ".....जब, जब आँख खुलती, मै ऊपरवालेके आगे गुहार लगाती और रज़ाई टटोल लेती...

खैर, सुबह मैंने फ़िर एकबार रज़ायीमे हाथ डाला और टटोला...... कुछ नही था..पेट दर्द भी नही था...ऊपरवालेने मेरी सुन ली...!!!!

सोमवार, 8 नवंबर 2010

एक ये भी दिवाली...

 दिवाली पे लिखी गयीं कई सारी पोस्ट पढ़ीं. अब के मन कुछ अजीब-सा मायूस रहा. सोसायटी के चौकीदार, सफाई वाली औरतें,महरी तथा अन्य नौकर चाकर इन सब को भेंट देने के लिए चीज़ें खरीदने में चाव ज़रूर था...देने में भी. लेकिन अपने घर के लिए! शून्य! घर में नज़र दौडाती तो लगता था,सामान या कोई भी चीज़ नयी आए,इसके बनिस्बत तो जो है उसी में से कोई  ले जाये तो अच्छा हो! आतिशबाजी तो हमारी दिवाली से कबकी हट चुकी थी...! हाँ ! घर की साफ़ सफाई, पौधों की देख भाल ...ये तो नित्य क्रम था...! दिवाली के लिए अलग से कुछ नही!!

इन्हीं दिनों में पाबला जी से एक दिन बातचीत हो रही थी. उन्हों ने कहा," ये हमारी बिटिया के बिना, पहली दिवाली है!"
मेरे मन में वो दिवाली याद आ गयी जो मेरी बिटिया के बिना पहली थी...और उसके बात तो वही सिलसिला जारी रहा. वो लक्ष्मी  पूजन तो ख़ास ही याद रह गया जब हम पती-पत्नी के बिना अन्य कोई नही था. खैर!

अबके धनतेरस के दिन मै एक mall   के बाहर अपने ड्राइवर का इंतज़ार करते सीढ़ियों पे बैठ गयी. अन्दर जा रही थी,तभी मेरी नज़र, चार, अलग,अलग उम्र के बच्चों पे गयी थी. एक बच्चा था कुछ आठ या दस सालका. रंगीन-सी फिरकियाँ बेचने एक कोने में बैठा था. आने जाने वाली रौनक़ को, फटे पुराने कपडे पहन, बड़ी बड़ी आँखों से देख रहा था. ऐसे ही बारा तेरा साल के अन्य बच्चे भी थे. कुछ ना कुछ बेचने की कोशिश में. पल भर भीड़ को आकर्षित करने के लिए कुछ हरकतें करते और फिर भीड़ को निहारने लगते.मन में आया क्या इन के लिए दिवाली की चमक दमक मायने नही रखती होगी?? इनके कुछ अरमान तो होते होंगे? नए कपडे, चंद पटाखे  और एकाध लड्डू?? mall में से मै बिना कुछ खरीदारी किये निकल आयी.

सीढ़ियों पे पहुँच ड्राइवर   को फोन लगा के बुलाया. उसे लंबा चक्कर काट के आना था. मै वहीँ बैठ गयी. निगाहें फिर उन्हीं बच्चों पे गयीं. एक ख़याल मन में तेज़ी से कौंधा...! क्यों ना मै इन बच्चों से कुछ ना कुछ खरीद लूँ? मुझे इन  चीज़ों की ज़रुरत नही, लेकिन खुशी की ज़रुरत तो है! मैंने चारों बच्चों से जितना खरीद सकती थी,खरीद लिया...शायद ही कभी कोई चीज़ खरीद के मै इतनी ख़ुश हुई थी, जितनी की,उस दिन! उन बच्चों के आँखों में आयी चमक देख, अपनी आँखों से पानी रोकना मुझे मुश्किल लग रहा था!!