बुधवार, 25 जनवरी 2012

किस नतीजेपे पहुंचे?

बुतपरस्तीसे हमें गिला,
सजदेसे हमें शिकवा,
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
वोभी तय करनेमे गुज़रे !
आख़िर किस नतीजेपे पहुँचे?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...

फ़सादोंमे ना हिंदू मरे
ना मुसलमाँ ही मरे,
वो तो इन्सां थे,जो मरे!
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है
हमारा,हम जो बच गए?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...

देखती हमारीही आँखें,
ख़ुद हमाराही तमाशा,
बनती हैं खुदही तमाशाई
हमारेही सामने ....!
खुलती नही अपनी आँखें,
हैं ये जबकि बंद होनेपे!
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
सिर्फ़ चार दिन मिले..! 

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ!




बुधवार, 11 जनवरी 2012

दादीमाँ का नैहर..


 नयी पोस्ट नही लिख पा रही हूँ...एक पुरानी पोस्ट दोबारा पेश है!

मेरी उम्र कुछ तीन चार साल की रही होगी, दादीमाँ मुझे खम्बात ले गयीं थीं. यह स्थल गुजरात में है.एक ज़माने में मशहूर और व्यस्त बन्दर गाह था.  यहीं उनका नैहर था.  हालाँकी,मै  बहुत छोटी थी, लेकिन वह हवेली नुमा मकान और उसका  परिसर मेरे दिमाग में एक तसवीर की तरह बस गया.

उस हवेली का प्रवेश द्वार खूब नक्काशी दार लकड़ी और पीतल का बना हुआ था. वहाँ से अन्दर प्रवेश करतेही ,ईंट की दीवारों से घिरा हुआ एक बड़ा-सा बगीचा था. उन दीवारों में जगह,जगह गोल झरोखे बने हुए थे, जहाँ से बाहर  का मंज़र  दिखाई देता.
बगीचे की आखरी छोर पे बना दरवाज़ा  , एक बड़े-से  सहन में खुलता. यहाँ पे नीचे फर्श लगाया हुआ था. बीछ में तीन बड़े गद्दे डाले हुए झूले थे. इस सहन के तीनों ओर दो मंजिला  मकान था. आगे और पीछे चौड़े बरामदेसे घिरा हुआ.

सहन के ठीक मध्य में, हवेली में प्रवेश करतेही, बहुत बड़ा दालान था. यहाँ भारतीय  तरीके की बैठक सजी हुई रहती. अन्य साजों सामाँ नक्काशीदार लकड़ी और पीतल से बना हुआ था. दीवारों पे कहीं कहीं बड़े,बड़े आईने लगे थे. इस दालान के बाद और दो दालान थे. दूसरे दालान में अक्सर जो मेहमान घरमे रुकते थे, उनके साथ परिवार के लोग बाग बैठा करते.पहला दालान  दिनमे आने जाने वाले मेहमानों के लिए था. तीसरे दालान में केवल परिवार के सदस्य मिल बैठते. महिलाओं के हाथ में अक्सर कुछ हुनर का काम जारी रहता.

इस हवेली से समंदर का किनारा काफ़ी पास में था. सुबह शाम मुझे वहाँ घुमाने ले जाया जाता था.  उन्हीं दिनों ,वहाँ मौजूद ,पूरे परिवार की एक तसवीर खींची गयी थी.

इस बात को अरसा हो गया. वहाँ दोबारा जाने का मौक़ा मुझे नही  मिला. एक दिन दादीमाँ के साथ पुरानी तस्वीरें देख रही थी,तो वह तस्वीरभी दिखी. सहसा मैंने दादीमाँ से अपने  ज़ेहन में बसे उस मकान का वर्णन किया और पूछा, की, क्या वह मकान वाकई ऐसा था, जैसाकी मुझे याद था?
दादीमाँ हैरत से बोलीं:" हाँ ! बिलकुल ऐसा ही था...! मै दंग हूँ,की,इतनी बारीकियाँ तुझे याद हैं...!"

फिर बरसों गुज़रे. मेरा ब्याह हो गया...मेरे दादा जी के मृत्यु पश्च्यात दादीमाँ  एकबार मेरे घर आयीं. मेरी छोटी  बहन भी उसी शहर में थी. वह भी उन्हें मिलने आयी हुई थी. तब सपनों को लेके कुछ बात छिड़ी.
मैंने कहा :" पता नही, क्या बात है,लेकिन आज तलक सपनों में मै गर कोई घर देखती हूँ तो वह मेरे नैहर का ही होता है..और रसोई भी वही पुरानी लकड़ी के चूल्हे  वाली...मेरे ससुरालवाले भी मुझे उसी घर में नज़र आते हैं..!"
बहन बोल पडी:" कमाल है ! यही मेरे साथ होता है..मुझे वही अपना बचपन का घर दिखता है...!"
इसपर दादीमाँ बोल उठीं:" मुझे शादी के बाद इस मकान में रहते ७२ साल गुज़र गए, पर मुझे आज भी वही खम्बात का मकान, मेरे घर की तौरसे सपनों में नज़र आता है..!"

सहज मेरे मन में ख़याल आया...लड़कियों को कहा जाता है,की, ब्याह के बाद ससुराल का घर ही तुम्हारा घर है...पर जिस मकान में पले बढ़ें, वहाँ की जड़े कितनी गहरी होती हैं, वही मकान अपना घर लगता है,सपनों में सही...!

ऊपर बना भित्ती चित्र उस खम्बात के घर का बगीचा है,जो मुझे याद रह गया..कुछ पेंटिंग, कुछ कढाई और कुछ क्रोशिया..इन सबके ताल मेल से कुछ दिनों पूर्व मैंने बनाया..काश! दादीमाँ के रहते बनाया होता!