बुधवार, 30 जून 2010

बोले तू कौनसी बोली ?

कुछ सिल्क के टुकड़े,कुछ खादी के,और बाकी कढाई से बनी घांस-फूंस ....कुँए की ओर जाती पगडंडी..और एक मंडवा.. 

अपने बचपन की एक यादगार लिखने जा रही हूँ...! या तो रेडियो सुना करते थे हम लोग या रेकॉर्ड्स......हँडल घुमा के चावी भरना और "his master's voice" के ब्रांड वाले ग्रामोफोन पे गीत सुनना...

एक रोज़ मैंने अपनी माँ से सवाल किया,
"अम्मा ! अपने कुए के पास कोई जल गया?"

अम्मा: " क्या? किसने कहा तुझसे...?कोई नही जला...! " मेरी बात सुनके, ज़ाहिरन, अम्मा काफ़ी हैरान हुईं !
मै : "तो फिर वो रेडियो पे क्यों ऐसा गा रहे हैं.....वो दोनों?"
अम्मा: " रेडियो पे? क्या गा रहे हैं?" अम्मा ने रेडियो की आवाज़ पे गौर किया...और हँसने लगीं...!

बात ही कुछ ऐसी थी...उस वक़्त मुझे बड़ा बुरा लगा,कि, मै इतनी संजीदगी से सवाल कर रही हूँ, और माँ हँस रही हैं...!
हमारे घर के क़रीब एक कुआ मेरे दादा ने खुदवाया था।उस कुए का पानी रेहेट से भर के घर मे इस्तेमाल होता था... उस कुए की तरफ़ जाने वाले रास्ते की शुरू मे माँ ने एक मंडवा बनाया था...उसपे चमेली की बेल चढी हुई थी... अब तो समझने वाले समझ ही गए होंगे, कि, मैंने कौनसा गीत सुना होगा और ये सवाल किया होगा...!
गीत था," दो बदन प्यार की आग मे जल गए, एक चमेली के मंडवे तले..."!

अम्मा: " अरे बच्चे...! ये तो गाना है...! "
मै: " लेकिन अगर उस मंडवे के नीचे कोई नही जला तो, दो बदन जल गए ऐसा क्यों गा रहे हैं, वो दोनों?"
अम्मा: "उफ़ ! अब मै तुझे कैसे समझाऊँ...! अरे बाबा, वो कुछ सच मे थोड़े ही जले...तू नही समझेगी..."
मै:" प्यार की आग, ऐसा क्यों गा रहे हैं? ये आग अपने लकडी के चूल्हेकी आग से अलग होती है ? उसमे जलने से मर नही जाते? और जलने पर तो तकलीफ़ होती है..है ना? मेरा लालटेन से हाथ जला था, तो मै तो कितना रोई थी... तो ये दोनों रो क्यों नही रहे...? गा क्यों रहे हैं? इनको तकलीफ नही हुई ? डॉक्टर के पास नही जाना पडा? मुझे तो डॉक्टर के पास ले गए थे...इनको इनकी माँ डॉक्टर के पास क्यों नही ले जा रही...? "

मेरी उम्र शायद ५/६ साल की होगी तब...लेकिन, ये संभाषण तथा सवालों की बौछार मुझे आज तलक याद है...
कुछ दिन पूर्व, अपने भाई से बतियाते हुए ये बात निकली तो उसने कहा,
" लेकिन आपको इतने बचपनमे 'मंडवे' का मतलब पता था? मुझे तो बरसों 'मंडवा' किस बला को कहते हैं, यही नही पता था...!"

सोमवार, 28 जून 2010

सिम्बा और छुटकी..

यह एक सच्चा किस्सा  है. एक छोटी लडकी और उसका कुत्ता सिम्बा का ,जो German shepherd  जाती का था.
यह लडकी अपने दादा दादी ,माता, पिता तथा भाई बहनों समेत उनके खेत में बने मकान में, रहा करती थी. उसके दादा जी उसे रोज़ सब से करीब वाले बस के रास्ते पे अपनी कार से  ले जाया करते.बस उसे एक छोटे शहर ले जाती जहाँ उस की पाठशाला थी.
जब से सिम्बा दो माह का हुआ वह भी गाडी में कूद जाया करता. जब कभी वो बच्ची बिना uniform के बाहर  आती तो उसे गाडी के तरफ  दौड़ने की परवाह न होती. वो तीनो एक दोराहे तक जाते जहाँ से बच्ची बस में सवार हो,चली जाती. हाँ,दादाजी  को हमेशा सतर्क रहना पड़ता की,कहीँ सिम्बा गाडी से छलांग न लगा ले!

आम दिनों की तरह वो भी एक दिन था. लडकी बस में सवार हो गयी. जब बस स्थानक पे बस रुकी और वो उतरी तो देखा,सिम्बा बस के बाहर अपनी दम और कान दबाये खडा था! बड़े अचरज से उस के मूह से निकला," सिम्बा..!"
और सिम्बा अपना डर भूल के बच्ची के नन्हें कंधों पे पंजे टिका उस का मूह चाटने लगा...! बस का वह आखरी स्थानक था. बच्ची को सब प्रवासी जानते थे...सभी  अतराफ़ में खड़े हो,बड़े कौतुक से , तमाशा देखने लगे!

ज़ाहिरन,सिम्बा उस कच्ची  सड़क पे आठ नौ किलोमीटर, बस के पीछे दौड़ा था...और उसे लेने दादाजी को बस के पीछे आना पडा. अब सिम्बा को कार  में बिठाने  की कोशिश होने लगी. उसे विश्वास दिलाने के ख़ातिर, बच्ची कार में बैठ गयी...पर सिम्बा को विश्वास न हुआ...मजाल की वह कार में घुसे!

बच्ची को पाठशाला के लिए देर होने लगी और अंत में उसने अपनी शाला की ओर चलना शुरू कर दिया. सिम्बा उसके पीछे, पीछे चलता गया. अपनी कक्षा पे पहुँच बच्ची ने फिर बहुत कोशिश की सिम्बा को वापस भेजने की,लेकिन सब व्यर्थ! अंत में वर्ग शिक्षिका ने कुत्ते को अन्दर आने की इजाज़त देही दी! वो दिनभर उस बच्ची के पैरों के पास, बेंच के नीचे बैठा रहा!

उस समय  सिम्बा साल भरका रहा होगा. बच्ची थी कुछ दस ,ग्यारह साल की..उस शाम जब दादा जी,सिम्बा और बच्ची घर लौटे तो सिम्बा की तबियत बिगड़ गयी....कभी न ठीक होने के लिए..जो तीन दिन वह ज़िंदा रहा,दिन भर बरामदे में,अपने बिस्तर पे  पडा रहता. ठीक शाम सात बजे वह अपनी आँखें खोल ,रास्ते की ओर निहारता..जहाँ से वो बच्ची उसे आते दिखती...बच्ची आके उसका सर थपकती और वो फिर अपनी आँखें मूँद लेता. उसकी बीमारी के लिए कोई दवा नही थी.

तीसरी रात,पूरा परिवार सिम्बा के अतराफ़ में बैठ गया. सब को पता था,की,अब वह चंद पल का मेहमान है...लेकिन सिम्बा अपनी गर्दन घुमा,घुमा के किसी को खोज रहा था. बच्ची अपने कमरे में रो रही थी. उस में सिम्बा के पास जाने की हिम्मत नही थी. अंत में दादा जी बच्ची को बाहर ले आए...जैसे ही बच्ची ने सिम्बा का सर थपका,सिम्बा ने अपनी आँखें बंद कर ली...फिर कभी न खोली..वह लडकी और कोई नही,मै स्वयं थी...


This is a true life incidence of a little girl & her dog,Simba,a German Shepherd.
The little girl & her family lived on a farm, in India. The grandpa would drop off the girl to the nearest State Transport bus route. The bus would take her to the small town where her school was located.
Every morning,ever since Simba was two months old, he would wait for the girl to come out in her uniform & would rush & jump along with her in the car.If the kid was in plain clothes,he never bothered! The trio would then drive down to a particular spot, to catch the bus. Grandpa had to be very careful about holding Simba back till the girl boarded the bus.
It was yet another,usual day.The girl got in the bus on her way to school.When she alighted, to her utter surprise, Simba was right there,standing very sheepishly!The onlookers who were regular commuters, watched the scenario with amusement! By then Grandpa too had driven in.Obviously,Simba had chased the bus for all those 8/9 kilometers on the muddy tracks!Grandpa had to follow! The kid gasped & exclaimed,"Simba!"
Suddenly Simba was guilt free & jumped on those tiny shoulders,front paws firmly planted, licking her face & wagging his tail frantically!The onlookers,who were familiar with the kid & the dog, were deeply moved! Grandpa now needed to take Simba back home but he just won't budge! Finally the girl was made to sit in the car to reassure Simba,that she too was going to be with him. But Simba was too sharp to fall into the trap! He refused to get into the car!!
The girl by now,was getting late for her classes, thus started walking towards the school.Simba followed her, & believe it or not, sat next to her bench the whole day! The class teacher had to allow!
At this point of time ,Simba was about a year old. The same evening he fell sick,never to recover.But all those three days that he lived & laid miserably on his bedding in the veranda,dot on 7pm.would glue his gaze to the drive way, from where the girl walked in & once he was patted,he would close his eyes & rest.
Third night, the entire family gathered around Simba. All knew that it was just a matter of moments now.The little girl was too grief stricken to come out.But Simba kept lifting his head & rolling his eyes,as if looking for someone. The kid was persuaded to come out. She stroked his head & Simba closed his eyes,instantly,forever.
The family had many dogs subsequently,named after Simba but none matched THAT simba. Till date HE is not forgotten. That little girl was no one else but me.

शुक्रवार, 25 जून 2010

मैंने क्या सुना?

चंद  साल हो गए इस घटनाको...मै अपनी किसी सहेलीके घर छुट्टियाँ  बिताने गयी थी। सुबह नहा धोके ,अपने कमरेसे बाहर निकली तो देखा, उसकी सासुजी, खाने के मेज़ पे बैठ ,कुछ सब्ज़ी आदि साफ़ कर रही थीं.......१२ लोग बैठ सकें, इतना बड़ा मेज़ था...बैठक, खानेका मेज़ और रसोई, ये सब खुलाही था...

मै उनके सामने वाली कुर्सी पे जा बैठी...तबतक  उन्हों ने सब्ज़ी साफ़ कर,आगेसे थाली हटा दी...मेरे आगे अखबार खिसका दिए और, फ़ोन बजा तो उसपे बात करने लगीं....

उसी दिनकी पूर्व संध्या को, मै मेरी अन्य एक सहेली  के घर गयी थी...ये सहेली उस शहर  के सिविल अस्पताल मे डॉक्टर थी। उसने बडीही दर्द नाक घटना बयान की...और उस घटना को लेके बेहद उद्विग्न भी थी...मुझसे बोली,
" कल मै रात की ड्यूटी पे थी....कुछ १० बजेके दौरान ,एक छोटी लडकी अस्पताल मे आयी...बिल्कुल अकेली...अच्छा हुआ,कि, मै उसे आपात कालीन विभाग के एकदम सामने खडी मिल गयी...उसकी टांगों परसे खून की धार बह रही थी....उम्र होगी ११ या १२ सालकी...

"मै उसके पास दौड़ी और उसे लेके वार्ड मे गयी...नर्स को बुलाया और उससे पूछ ताछ शुरू कर दी...उसके बयान से पता चला कि, उसपे सामुहिक  बलात्कार हुआ था...जो उसे ख़ुद नही पता था...उसे समझ नही आ रहा था,कि, उन चंद लोगों ने उसके साथ जो किया,वो क्यों किया...इतनी भोली थी.....!अपने चाचा के घर गयी थी...रास्ता खेतमे से गुज़रता था...पढनेके लिए, अपने मामा और नानीके साथ शहर  मे रहती थी...शाम ६ बजे के करीब लौट रही थी..."उस" घटना के बाद शायद कुछ घंटे बेहोश हो गयी...जब उसे होश आया तो सीधे हिम्मत कर अस्पताल पोहोंची....नानी के घरभी नही गयी....उसे IV भी चढाने लगी तो ज़रा-सा भी डरी नही...

मै जानती थी,कि,ये पुलिस  केस है...अब इत्तेफाक से मेरे पति  यहाँ पुलिस  विभाग मे हैं,तो, मैंने उसकी ट्रीटमेंट शुरू करनेमे एक पलभी देर नही की...
"वैसेभी, हरेक डॉक्टर को प्राथमिक चिकित्छा  के आधार पे ट्रीटमेंट शुरू करही देनी चाहिए...बाद मे पुलिस  को इत्तेला कर सकते हैं..मैंने अपने पती को तो इत्तेला करही दी...लेकिन, अस्पताल मे भी पुलिस तैनात होती ही है...
वहाँ पे चंद मीडिया के नुमाइंदे भी थे..अपने साथ कैमरे लिए हुए...!

"यक़ीन कर सकती हो इस बातका, कि, उतनी गंभीर हालात मे जहाँ उस लडकी को खून चढाने की ज़रूरत थी...वो किसी भी पल shock मे जा सकती थी..मैंने ऑपरेशन  थिएटर तैयार करनेकी सूचना दी थी...उसे टाँके लगाने थे...और करीब ३० टांकें लगे...इन नुमाइंदों को उसका साक्षात् कार लेनेकी, उसकी फोटो खींचने की पड़ी थी...?
"नर्स , वार्ड बॉय तथा पुलिस कांस्टेबल को भी  धक्का देके, उसके पास पहुँच  ने की कोशिश मे थे....! वो तो मैंने चंडिका का अवतार धारण कर लिया...उस बच्ची को दूसरे वार्ड मे ले गयी...स्ट्रेचर पे डाला,तो उसके मुँह पे चद्दर उढ़ा दी...वरना तो इसकी फोटो खिंच जानी थी ...!"

इतना बता के फिर उसने बाकी घटना का ब्योरा मुझे सुनाया...मै भी बेहद उद्विग्न हो गयी..कैसे राक्षस  होते हैं... हम तो जानवरों को बेकार बदनाम करते हैं...! जानवर तो कहीँ बेहतर...! पर मुझे और अधिक संताप आ रहा था, उन कैमरा लिए नुमाइंदों पे...! ज़रा-सी भी संवेदन शीलता नही इन लोगों मे? सिर्फ़ अपने अखबारों मे सनसनी खेज़ ख़बर छप जाय...अपनी तारीफ़ हो जाय, कि, क्या काम कर दिखाया ! ऐसी ख़बर तस्वीर के साथ ले आए...! सच पूछो तो इस किस्म की संवेदन हीनता का मेरा भी ये पहला अनुभव नही था...जोभी हो!

मै जिनके घर रुकी थी, रात को वहाँ लौटी तो मेरे मनमे ये सारी बातें घूम रही थीं...सुबह मेज़  से जब अखबार उठाये,तो बंगाल मे घटी, और मशहूर हुई एक घटना का ब्योरा पढ़ने लगी...उस "मशहूर" हुए बलात्कारी को फांसी की  सज़ा सुनाई गयी थी, और मानव अधिकार(!) संस्था के सभासदों   ने उसपे "दया" दिखने की गुहार करते हुए मोर्चा निकाला था...परसों वाली  ख़बर भी साथ, साथ छपी थी...! दिमाग़ चकरा रहा था....!

इतनेमे मेरी मेज़बान महिला फोन पे बात ख़त्म कर मेरे आगे आके बैठ गयीं और बतियाने लगीं," आजकल रेपिंग भी एक कला बन गयी है..."

मैंने दंग होके उनकी ओर देखा...! क्या मेरे कानों ने सही सुना ?? मेरी शक्ल पे हैरानी देख वो आगे बोली," हाँ! सही कह रही हूँ...हमलोग तो लड़कियों को ये हुनर सिखाते हैं....!"
कहते,कहते वो, अपनी कुर्सी के पीछे मुड़ के बोलीं ," अरे ओ राधा...ठीक से रेप कर...अरे किसन...तुझे मैंने रेप करना सिखाया था ना...अरे ,तू मेरा मुँह क्या देख रहा है...सिखा ना राधा को...करके दिखा उसको...राधा, सीख ज़रा उससे...ठीकसे देख, फिर रेप कर...!"

मेरी तरफ़ मुडके बोली," कितना महँगा पेपर बरबाद कर दिया...! ज़रा मेरा ध्यान हटा और सब ग़लत रेप करके रख दिया...!"

अब मेरी समझमे आने लगा कि, उस बड़ी-सी मेज़ के कुछ परे, एक कोनेमे,( जो मुझे नज़र नही आ रहा था, और पानी चढाने की मोटर चल रही थी, तो कागज़ की आवाज़ भी सुनाई नही दे रही थी), उनके २ /३ नौकर चाकर , कुछ तोहफे कागज़ मे लपेट रहे थे!

उनके पोते का जनम दिन था ! जनम दिन पे आनेवाले "छोटे" मेहमानों के खातिर, अपने साथ घर ले जानेके लिए तोहपे, "रैप" किए जा रहे थे! ! इन मेज़बान महिला का उच्चारण "wrap"के बदले "रेप" ऐसा हो रहा था....और मै अखबार मे छपी ख़बर भी पढ़ रही थी....तथा,पूर्व संध्या को सुनी "उस" ख़बर का ब्योरा मनमे था....ग़नीमत थी,कि, लडकी का नाम पता नही दिया था...! ज़ाहिर था, उन्हें मिलाही नही था...!

लेकिन चंद पल जो मै हैरान रह गयी, उसका कारण केवल मेरे दिमाग़ का" अन्य जगह" मौजूद होना था...वरना, मुझे इन उच्चारणों की आदत भी थी.....! जब मुझे ऐसा सदमा मिला था,तो उस बालिका पे क्या गुज़री होगी???

मंगलवार, 22 जून 2010

उड़ जा ओ परिंदे!

पँछी  तो कढाई से बना है. पत्तों के लिए सिल्क हरे रंग की छटाओं   में रंग  दिया और आकार काट के सिल दिए. घोंसला बना है,डोरियों,क्रोशिये और धागों से. पार्श्व भूमी है नीले रंग के, हाथ करघे पे बुने, रेशम की.

चल उड़ जा ओ परिंदे!
तू नीड़ नया बना ले रे ,
न आयेगा अब लौट के,
इक बार जो  फैले पंख रे,
जहाँ तूने खोली आँखें,
जहाँ तूने निगले दाने रे !

शनिवार, 19 जून 2010

बेमिसाल दास्ताँ!:2(antim)


यह भित्ती चित्र केवल कढाई से बनाया है... जब कभी इस चित्र को या डाल पे बैठे,या फिर  आसमान में उड़ने वाले परिन्दोको देखती हूँ ,तो मुझे वो  लोग याद आ जाते हैं,जिनके बारे में लिखने जा रही हूँ.

अगले दिन हम दोनों फिर बतियाने बैठ गए.मासी की बहन ने उस डॉक्टर से बात चीत कर ली. इधर उन्हों ने अपनी बहू के सामने प्रस्ताव रखा वह संजीदा हो गयी.कुछ देर खामोश रहकर बोली: " ठीक है माजी, मै इस लड़के को मिलने के तैयार हूँ....पर मेरी भी एक शर्त है.."
मासी:" क्या शर्त है?"
बहू :" उसने मुझे आपके साथ स्वीकार  करना होगा...तभी मै ब्याह के लिए राज़ी हो सकती हूँ.."
मासी :" अरे, तो मै कौन कह रही हूँ,की,मुझे भूल जाना ! मै तो मिलती रहूँगी तुझसे!"
बहू:" नही,मै आपको यहाँ अकेले छोड़ के नही जा सकती. मै जहाँ रहूँगी ,आपने मेरे साथ चलना होगा..कौन है आपका इस दुनियामे? आप चाहे इसे मेरी ज़िद समझ लें,पर मै इस निर्णय पे अटल हूँ..."

मासी बड़ी धरम संकट में पड़ गयीं. उन्हों ने लड़के को अपने घर आमंत्रित किया. लड़का समयानुसार आ भी गया. कुछ और मुलाक़ातें तय होने जा रहीं थीं की,बहू, लड़के से मुखातिब हो, बोल पडी : शायद माँ जी   ने मेरी एक शर्त बताई नही.."
लड़का:" तो आप कहिये,क्या शर्त है?
बहू:" मै,मेरी इस माँ को, छोड़ नही सकती. मेरी ख़ातिर इन्हों ने एक अकेली ज़िंदगी जीने का हौसला दिखाया है. जब तक मेरे पती थे,शायद तब हमारा रिश्ता सास-बहू का रहा होगा...अब माँ -बेटी का है.."
लड़का:" मुझे क़तई ऐतराज़ नही! बल्कि आप के लिए मेरे दिल में इज्ज़त बढ़ गयी है! मुझे तो बहुत खुशी होगी,गर ये हमारे साथ रहने आयें...मेरे बेटे को एक बहुत प्यारी-सी दादी मिल जायेगी!"
मासी:" दादी भी और नानी भी..."

दास्ताँ सुनाते,सुनाते मासी की आँखें भर आयीं,बोली:" उस समय भी मै अपनी बहू का प्यार देख रो पडी थी. तब तक उस के प्यार की गहराई नही नाप पाई थी...
" दो चार बार वो दोनों मिले. एक माह के भीतर,भीतर बड़ी सादगी से विवाह संपन्न हो गया. दो माह के बाद मै उनके साथ रहने चली गयी...आखिर मेरे घर को भी समेटना था! मैंने वसीयत बना दी. मेरे बाद मेरा घर मेरी बहू को मिल जाएगा! मै तो एक बेटा,जो मेरा दामाद भी है,पाके बहुत,बहुत ख़ुश हूँ! ईश्वर ने जो छीन लिया था,सूद समेत लौटा दिया! यह बच्चा तो मेरे बिना न खाता है,न सोता है."

दास्ताँ सुन मुझे लगा जैसे मै किसी फ़रिश्ते के सान्निध हूँ..बगीचे के गेट से वो जोड़ा आते दिखाई दिया..मासी खड़ी हो गयीं,तो मैंने बढ़ के अनायास उनके पैर छू लिए..उन्हों ने मुझे गले से लगा के अपने घर आने का तहे दिल से न्योता दिया...और मै गयी भी...वहाँ पहुँच महसूस हुआ, जन्नत में भी इससे अधिक शांती न होगी.....मै तुरंत उस बच्चे की मासी बन गयी...धन्य हो गयी...

शुक्रवार, 18 जून 2010

बेमिसाल दास्ताँ!

यह भित्ती चित्र केवल कढाई से बनाया है... जब कभी इस चित्र को या डाल पे बैठे,या फिर  आसमान में उड़ने वाले परिन्दोको देखती हूँ ,तो मुझे वो  लोग याद आ जाते हैं,जिनके बारे में लिखने जा रही हूँ!

 मै अपने शहर के (महानगर के )बगीचे में घूमने जाया करती हूँ. घूमने के बाद अक्सर एक बेंच पे कुछ देर बैठ जाती. उसी बेंच पे एक अधेड़ उम्र की महिला को अक्सर बैठा देखती. मेरा घूमना ख़त्म होने से पहले वह अक्सर चली जाया करती. साथ एक बच्चा होता. उसकी उम्र यही कोई ४ या ५ साल की होगी. एक युवा जोड़ा शाम ६ बजे की करीब बगीचे में आता. वह चारों साथ,साथ चले जाया करते.

एक दिन शायद उस जोड़े को आने में देर हो गयी और मै उस महिला के साथ बेंच पे बैठ गयी. मुझे देख वह बड़े स्नेह से मुस्कुरायी, जैसे पुरानी पहचान हो. कुछ संभाषण शुरू करने के इरादे से मैंने उससे कहा:" बच्चा बड़ा प्यारा है..आपका पोता है न? या नाती?"
महिला मंद,मंद मुस्काते हुए बोली::" समझ लो दोनों है..वह कहते हैं ना,two in one!"
मै काफ़ी चकरा गयी ! बोली: " ओह! वो कैसे? "
महिला:" या यूँ कहें,उसने मुझे दादी या नानी के तौर से अपना लिया है!"
मै:" यह तो बड़ी गूढ़ बात है...! पहेली लग रही है!"
महिला:" हाँ अक्सर मेरी यह बात लोगों को पहेली लगती है. जीवन ही जहाँ अनबुझ पहेली है,वहाँ एक और पहेली सही!"
इतने में वह युवा जोड़ा आ गया. उन्हें दूरसे आते देख मैंने कहा:" आपके बहु बेटा आ गए..पर कल मै इस पहेली का जवाब लेके ही मानूँगी ....हाँ वरना आपके पीछे चली आउँगी! मेरे दिमाग में खलबली मच गयी है!"
वह हँस दी और मेरे काँधे को हलके-से थपक, बच्चे की ओर बढ़ गयी. वो चारों हँसते,बोलते चले गए.

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अगले दिन शाम,जैसे ही वह मुझे बेंच पे दिखी,मै उस के पास जा बैठी और बोली:" मै आपको कैसे संबोधित करूँ? मासी कहूँ?
मासी:" हाँ,हाँ! यह बहुत अच्छा रिश्ता होता है! "
मै:" तो अब पहेली सुलझा दीजिये ना मासी!"
मासी:" मेरा एक बेटा था...तीन साल पूर्व उसकी एक अपघात में मौत हो गयी. यह जो मुझे लेने आती है,वह उसकी पत्नी...जब यह हादसा हुआ,वह गर्भवती थी. सदमे के कारण उसका गर्भपात हो गया. हमारा बड़ा सुखी,छोटा-सा परिवार था. क़िस्मत के आगे क्या कर सकते हैं?
"बहू कॉलेज में पढ़ाती थी. वह काम तो था उसके पास. लेकिन बड़ी उदास रहती. उसे देख,मै भी बड़ी उदास रहती. इस संसार में मेरा अन्य कोई नही था. बहू की माँ तो वह स्कूल में थी,तभी   गुज़र गयी थी. पिता मानो,बेटी को ज़िंदगी में स्थायिक करने के लिए जी रहे थे. उसके ब्याह के चंद माह बाद वो भी दिल के दौरा पड़ने के कारण चल बसे. ना भाई ना बहन.
"बहू ने मानो बैराग  ले लिया हो...बेरंग कपडे,न गहने ना सिंगार..एक दिन मै उसके पीछे पड़ गयी,कहा,तुम जैसे पहले रहती थीं,वैसे ही रहा करो.तुम्हें ऐसे देखती हूँ,तो मेरे दिलपे छुरी चल जाती है.
" धीरे, धीरे उसने मेरा मन रखना शुरू कर दिया. चंद लोगों ने उसे ताने दिए. कहने लगे,कोई मिल गया होगा कॉलेज में..और इसी बात पे मैंने सोचना शुरू कर दिया...भला हो निंदकों का...मैंने उसका पुनर्विवाह करने की ठान ली. मैंने अपने एक रिश्ते की बहन को मेरी मनीषा बताई. उसने भी वर तलाशना शुरू कर दिया. चंद हफ़्तों बाद उसका मुझे फोन आया-दीदी, एक लड़का है..डॉक्टर है.उसका एक बेटा है.विधुर है.वह शादी करना चाह रहा है, और कहता है,की,किसी विधवा से ही करूंगा. मै बात आगे बढ़ाऊं?
"मैंने तुरंत हाँ कर दी."
इतने में वह जोड़ा आ गया. और बातें वहीँ रुक गयीं. मै अगले दिन का इंतज़ार करने लगी.
क्रमश:
(कल यह दास्ताँ पूरी हो जायेगी!)

सोमवार, 14 जून 2010

रेत के टीले...

सिल्क पे  वाटर colour ,कढाई और कुछ सूखी,किताबों में मिली घांस.इन   से बना यह रेगिस्तान का भित्ती चित्र...



एक अजीब-सा सपना आता मुझे कभी कबार..माथे पे तपता सूरज, जो दिशा  भ्रम कराता...पैरों तले तपती रेत ,तलवे जलाती रहती..कुछ दूरी पे,टीलों  के पीछे,हरे,घनेरे पेड़ नज़र आते..नीली पहाडी,और उसके ऊपर मंडराते मेघ..साथ ही मृगजल..मै जितना उनके करीब जाती वो उतना ही दूर जाते..मुड़ के देखती तो पीछे नज़र आते..जब तलिए बेहद जलने लगते,सरपे धूप असह्य हो जाती तो मेरी आँख खुल जाती...पसीने से लथपथ,और ज़बरदस्त सर दर्द लिए...

एक दिन मैंने कपडे पे, उस रेगिस्तान को स्मरण करते हुए, जल रंगों से पार्श्वभूमी रंग डाली..और फिर महीनों वो कपड़ा पड़ा रहा..फिर किसी दिन उसपे थोड़ी कढाई कर दी..घांस की पातें सिल दीं..
मुझे हमेशा, रंगीन,फूलों पौधों से भरे हुए चित्र बनाना अच्छा लगता...इस पे दृष्टी डाली और सोचा,पड़ा रहने दो इसे..फ्रेम नही करूँगी...

एक दिन मेरी कुछ सहेलियाँ आई हुई थीं..मेरा काम देख रहीं थीं. मेरी बेटी भी वहीँ थी. अलमारी में से जाने क्या निकाल ने गयी और यह कपड़ा फर्श पे गिर,फैल गया. मै उसे उठा लूँ,उसके पहले सब की नज़र उसपे पडी. 
किसीने कहा:" इसे क्यों यहाँ दबा रखा है? यह तो सब से बेहतरीन है...इसे तो मै ले जाउँगी! "( और वाकई वो एक दिन मुझ से बचा के इस चित्र को अपने घर ले गयी..और मै बाद में उसे वापस ले आयी..)

बिटिया: "नही,नही..मासी...यह तो मै रखूँगी..आप कुछ और ले जाइये..मैंने तो इसे देखाही नही था..! "

खैर,बिटिया दुनिया घूमती रही... और बहुत कुछ ले गयी,लेकिन इसे यहीं छोड़ गयी.जब कभी इसे देखती हूँ,तो वो कुछ पल ज़हन में छा जाते हैं..और शोर मचाती हैं,कुछ पंक्तियाँ...

नीली पहाड़ियाँ,मेघ काले,
सब थे धोखे निगाहों के,
टीलों के पीछे से झांकते,
हरे,हरे,पेड़ घनेरे,
छलावे थे रेगिस्तान के ...
तपता सूरज माथेपे,
पैरों के जलते तलवे,
सच थे इन राहों के...

गुरुवार, 10 जून 2010

चलो,चाँद पे जाएँ!


कुछ हाथ करघेसे बने सिल्क के टुकड़े, थोडा घरपे काता और रंगा गया सूत और रंगीन रुई के ( sliver)टुकड़े,थोडा tissue जिसका कुछ हिस्सा रंगीन रुई के टुकड़ों पे चढ़ाया गया है....और हाथसे की कढ़ाई...इन सबसे यह भित्ती चित्र मैंने बनाया है....जो  याद  दिलाता  है ,बचपन की  सुनहरी  शामों  के  रंग .....

मेरा बचपन,एक खेत पे, बड़े प्यारे संयुक्त  परिवार के साथ बीता. मेरे लिए एक आया हुआ करती थी, जिसे मै वनु मासी कहा करती...वह एक निरक्षर औरत थी, जो मुझे नहलाती, कभी घुमाने ले जाती, कभी खाना खिलती..और कहानियाँ भी सुनाती...कहानियों में जादुई सम्मोहन हुआ करता..! बिलकुल वैसा,जैसा दादी माँ की कहानियों में होता!

मै तब स्कूल में ही थी,जब वनु मासी को अपने गाँव जाना पड़ गया. वह मुझे बेहद याद आती..शायद आज भी आती है..

इत्तेफाक़न, चंद रोज़ पूर्व, मेरी उससे मुलाक़ात हुई. बड़ा गज़ब का लम्हा था वो..हम दोनों अपने अपने  जीवन में  कई,कई मोड़ों से गुज़र चुके थे. उतार चढाओं से रु-b -रु हुए थे. दोनों एक दूसरे के गले लग खूब रो लिए..अचानक मुझे,मेरे बचपन का एक वाकया याद गया ,लगा था,जिसे मै भूल गयी! और कथा कथन के जादुई सम्मोहन को समझ  गयी...वो बचपन का वाक़या आज भी मेरे ज़हन में उतना ही ताज़ा था,जितना की,तब!

मेरी उम्र कुछ तीन चार साल की रही होगी. आम शामों की तरह वो भी एक शाम थी,जब माँ मुझे घर के अन्दर बुला रही थी,और मै और खेलना चाह रही थी. अंत में माँ का सब्र जवाब दे गया..वो तीखी आवाज़ में बोलीं-" तू अन्दर आने के लिए क्या लेगी?'

मै-" चाँद! मुझे चाँद पे जाना है,और उस बूढ़ी नानी से मिलना है!

माँ (हैरान होते हुए)-" क्या? "

मै- " वो जो सूत कतायी करती है और कपड़ा बुनती है..बादलों की रंगीन रुई से...फिर नीचे डाल देती है...और तुम उस  से मेरे कपडे सीती हो ! मुझे उसी के पास जाना है..अभी!


यह सब मुझे वनु मासी बताया करती थी! माँ निशब्द हो गयीं..! उन्हें क्या पता था यह सब?

वनु मासी माँ के छुटकारे के लिए बोल उठी-" ज़रूर जाना..मै भी चलूँगी...लेकिन उससे पहले तुम्हें नहाना होगा..वहाँ गंदे पैर लेके नही जा सकते...और भूखे पेट भी नही! नहाओ,खाओ,फिर!


मै-" ऊ..!अच्छा,अच्छा!"

मै तुरंत वह सब कुछ करने राज़ी हो गयी,जो ज़रूरी था!पर चाँद पे जानेवाली बात नही भूली..खाना ख़त्म होते ही मैंने फिर विषय छेड़ दिया-" अब ले चलो मुझे चाँद पे!"

वनु मासी-"देखो बिटिया! वहाँ जाने के लिए हमें एक सीढ़ी चाहिए..जिसका एक सिरा,एकदम 'सही' बादल पे टिकाना होगा..अब तुम्हें तो पता है,मै दिन में घर के कामों में  लग जाती हूँ..लेकिन फिर भी मै एक सीढ़ी तलाश के रखूँगी...तुम बादल तलाशना..! यह काम तो दिन में कर सकते हैं..रात में तो नही!

मै-" हाँ!हाँ! तुम मुझे जल्दी सुबह उठा देना..मै बादल ढूँढ लूँगी..ठीक?"

और इस तरह बादल की खोज शुरू हो गयी..वनु मासी की सीढ़ी देख लेने की बात तो मुझे सूझी ही नही!

वह सीढ़ी तैयार ना रखे,ऐसा तो हो ही नही सकता था!

मै आसमान में बादल खोजती रहती..कभी बादल का टुकडा बहुत छोटा होता..कभी सीढ़ी के वज़न के लिहाज़ से बहुत छितरा होता..कृष्ण  पक्ष की रातें भी हुआ करतीं..जब चाँद छोटा हो जाता..हम दोनों उस पे कैसे समाते? 

लेकिन वनुमासी कहतीं-" जितना हम रुकेंगे,उतना ज़्यादा कपड़ा तुमें मिलेगा! तुम शाम गहराने से पहले,  बादलों से अपने मन पसंद रंग चुन लिया करो और मुझे बताया करो...मै उस बुढ़िया को कहूँगी,की,तुम्हारे  मन पसंद रंगों से कपड़ा बुने! "

पता नही,ऐसे कितने दिन बीते! पर मै बिलकुल निराश नही हुई! हर गहराती शाम, इक नयी सुबह की उम्मीद लाती...जब मुझे एक 'सही' बादल का टुकडा मिल जाना था...जिस पे सीढ़ी रख,मैंने और वनु मासी ने चाँद पे जाना था...!

अपनी खोयी हुई वनु मासी को देख,उस 'बड़ी' हुई लडकी को अपने सपनों वाले बादल याद आ गए...शामों के  रंग याद आ गए..!हर रात के बाद आनेवाली उम्मीद की सुबह याद आ गयी..! क्या वह लडकी कभी वहाँ पहुँची,जहाँ जाना चाह रही थी? जिस रात की सहर नही होगी,ऐसी रात के पहले,क्या वह चाँद पे जा पायेगी???



 

गुरुवार, 3 जून 2010

उस पार तो लगा दे!

सिल्क  पे  थोडा  water color,थोड़ी  कढाई .

अरे ओ आसमान वाले!
कब से नैय्या मेरी पडी है,
इंतज़ार में तेरे खड़ी है,
नही है खेवैय्या,ना सही,
पतवार तो दिला दे,
 उस पार तो लगा दे!

बुला रहा है मुझे,
वो दूर साहिलों से,
इस पार झील के,
मेरा कोई नही है..
उस पार तो लगा दे!

शाम ढल रही है,
घिरने लगे अँधेरे,
मछली मुझे बना दे,
बिनती करूँ हूँ तुझ से,
उस पार तो लगा दे..!