मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

परिंदे!

लाल आंखोंवाली बुलबुल पँछी के जोड़े की ये कढ़ाई है. इनकी तसवीर देखी तो इकहरे धागे से इन्हें काढने का मोह रोक नही पाई.

कैसे होते हैं  ये परिंदे!
ना साथी के पंख छाँटते ,
ना उनकी उड़ान रोकते,
ना आसमाँ बँटते इनके,
कितना विश्वास आपसमे,
मिलके अपने  घरौंदे बनाते,
बिखर जाएँ गर तिनके,
दोष किसीपे नही मढ़ते,
फिर से घोसला बुन लेते,
बहुत संजीदा होते,ये परिंदे!

रविवार, 11 दिसंबर 2011

ये मौसम सुहाने .

सिल्क की पार्श्वभूमी है इस भित्ती चित्र में.झरना बना है एक सिल्क की चोटी से जिसे मैंने कंघी से खोल दिया! रंगीन सिल्क के टुकड़ों में से छोटे छोटे पत्ते  काट के टांक दिए  हैं.दो तीन क्रोशिये की चेन भी टांक दीं हैं,बेलों की तौर पे. उर्वरित कपडे  पे कढ़ाई की है.

 सावन  के  झरने ,
बहारों के साए,
पतझड़  के  पत्ते
मिले हैं आके यहाँ पे..

हम रहे न रहें,
किया है क़ैद इन्हें
तुम्हारे लिए,
ये अब जा न पायें..

भूल जाना दर्द सारे,
जो गर मैंने दिए,
साथ रखना अपने,
ये मौसम सुहाने..

शनिवार, 26 नवंबर 2011

नज़रे इनायत नही...


पार्श्वभूमी  बनी  है , घरमे पड़े चंद रेशम के टुकड़ों से..किसी का लहंगा,तो किसी का कुर्ता..यहाँ  बने है जीवन साथी..हाथ से काता गया सूत..चंद, धागे, कुछ डोरियाँ और कढ़ाई..इसे देख एक रचना मनमे लहराई..

एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
 बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..

बहारों की  नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..


रविवार, 13 नवंबर 2011

वो घर बुलाता है...

ये fusion वाली रचना ख़ास अरविन्द मिश्रा जी के अनुरोध पे!

जब ,जब पुरानी तसवीरें,

कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,

हँसते ,हँसते भी मेरी

आँखें भर आती हैं!



वो गाँव निगाहोंमे बसता है

फिर सबकुछ ओझल होता है,

घर बचपन का मुझे बुलाता है,

जिसका पिछला दरवाज़ा

खालिहानोमें खुलता था ,

हमेशा खुलाही रहता था!



वो पेड़ नीमका आँगन मे,

जिसपे झूला पड़ता था!

सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,

माँ जो कहानी सुनाती थी!



वो घर जो अब "वो घर"नही,

अब भी ख्वाबोमे आता है

बिलकुल वैसाही दिखता है,

जैसा कि, वो अब नही!



लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,

दिलसे धुआँसा उठता है,

चूल्हा तो ठंडा पड़ गया

सीना धीरे धीरे सुलगता है!



बरसती बदरीको मै

बंद खिड्कीसे देखती हूँ

भीगनेसे बचती हूँ

"भिगो मत"कहेनेवाले

कोयीभी मेरे पास नही

तो भीगनेभी मज़ाभी नही...



जब दिन अँधेरे होते हैं

मै रौशन दान जलाती हूँ

अँधेरेसे कतराती हूँ

पास मेरे वो गोदी नही

जहाँ मै सिर छुपा लूँ

वो हाथभी पास नही

जो बालोंपे फिरता था

डरको दूर भगाता था...



खुशबू आती है अब भी,

जब पुराने कपड़ों मे पडी

सूखी मोलश्री मिल जाती

हर सूनीसी दोपहरमे

मेरी साँसों में भर जाती,

कितना याद दिला जाती ...



नन्ही लडकी सामने आती

जिसे आरज़ू थी बडे होनेके

जब दिन छोटे लगते थे,

जब परछाई लम्बी होती थी...





बातेँ पुरानी होकेभी,

लगती हैं कल ही की

जब होठोंपे मुस्कान खिलती है

जब आँखें रिमझिम झरती हैं

जो खो गया ,ढूँढे नही मिलेगा,

बात पतेकी मुझ ही से कहती हैं ....


छोट बच्चे के नज़रिए से ये भित्ती चित्र बनाया था. खादी सिल्क की पार्श्वभूमी पे पहले थोडा पेंट कर लिया और ऊपर से कढ़ाई की है.
कभी,कभी बचपन बहुत याद आता है...सपने आते हैं,जिन में मै स्वयं को एक बच्ची देखती हूँ...बचपन वाला घर दिखता है....बचपन के दोस्त और दादा दादी दिखते हैं...आँखें खुलने पे वो बेसाख्ता बहने लगती हैं...


बुधवार, 2 नवंबर 2011

दिलकी राहें.......


बहोत वक़्त बीत गया,
यहाँ किसीने दस्तक दिए,
दिलकी राहें सूनी पड़ीं हैं,
गलियारे अंधेरेमे हैं,
दरवाज़े हर सरायके
कबसे बंद हैं !!
राहें सूनी पडी हैं॥

पता नही चलता है
कब सूरज निकलता है,
कब रात गुज़रती है,
सुना है, सितारों भरी ,
होतीं हैं रातें भी
राहें सूनी पड़ीं..

चाँद भी घटता बढ़ता है,
शफ़्फ़ाक़ चाँदनी, रातों में,
कई आँगन निखारती है,
यहाँ दीपभी जला हो,
ऐसा महसूस होता नही....
दिलकी राहें सूनी पड़ीं...

उजाले उनकी यादोंके,
हुआ करते थे कभी,
अब तो सायाभी नही,
ज़माने गुज़रे, युग बीते,
इंतज़ार ख़त्म होगा नही...
दिलकी राहें सूनी पड़ीं....

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

वक़्त की धारा


कब,कौन पूछता मरज़ी उसकी,
अग्नी से, वो क्या जलाना चाहे है,
जहाँ लगाई,दिल या दामन,जला गयी!

कुम्हार आँगन बरसी जलभरी बदरी,
थिरक,थिरक गीले मटके  तोड़ गयी..
सूरज से सूखी खेती तरस गयी !

कलियों का बचपन ,फूलों की  जवानी,
वक़्त की निर्मम धारा बहा गयी,
थकी, दराज़ उम्र को पीछे छोड़ गयी...

रविवार, 25 सितंबर 2011

खिलने वाली थी...


खिलनेवाली थी, नाज़ुक सी
डालीपे नन्हीसी कली...!
सोंचा डालीने,ये कल होगी
अधखिली,परसों फूल बनेगी..!
जब इसपे शबनम गिरेगी,
किरण मे सुनहरी सुबह की
ये कितनी प्यारी लगेगी!
नज़र लगी चमन के माली की,
सुबह से पहले चुन ली गयी..
खोके कोमल कलीको अपनी
सूख गयी वो हरी डाली....

( भ्रूण  हत्या  को  मद्देनज़र  रखते  हुए  ये  रचना  लिखी  थी ..)

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

इन पहाड़ों से....

अचानक ख़याल आया ,ये इस ब्लॉग परकी १००वी पोस्ट है!

.रेशमके कपडेपे water कलर, उसके ऊपर धुंद दिखानेके लिए शिफोनका एक layer ....कुछ अन्य रंगों के तुकडे, ज़मीन, पहाड़, घान्सफूस, दिखलाते है...इन कपडों पे कढाई की गयी है...
इन  पहाड़ों से ,श्यामली  घटाएँ,
जब,जब गुफ्तगू करती हैं,  
धरती पे  हरियाली छाती है,
हम आँखें मूँद लेते हैं..
हम आँखें मूँद लेते हैं...

उफ़! कितना सताते हैं,
जब याद आते है,
वो दिन कुछ भूले,भूले-से,
ज़हन में छाते जाते हैं,
ज़हन में छाते जाते हैं...

जब बदरी के तुकडे मंडरा के,
ऊपर के कमरे में आते हैं,
हम सीढ़ियों पे दौड़ जाते है,
और झरोखे बंद करते हैं,
 झरोखे  बंद करते हैं,

आप जब सपनों में आते हैं,
भर के बाहों में,माथा चूम लेते हैं,
उस मीठे-से अहसास से,
पलकें उठा,हम जाग जाते हैं,
हम जाग जाते हैं,

बून्दनिया छत पे ताल धरती हैं,
छम,छम,रुनझुन गीत गाती हैं,
पहाडी झरने गिरते बहते  हैं,
हम सर अपना तकिये में छुपाते हैं,
सर अपना तकिये में छुपाते हैं..

शनिवार, 27 अगस्त 2011

शमा हूँ मै...


सिल्क के चंद टुकड़े जोड़ इस चित्र की पार्श्वभूमी बनाई. उस के ऊपर दिया और बाती रंगीन सिल्क तथा कढाई के ज़रिये बना ली. फ्रेम मेरे पास पहले से मौजूद थी. बल्कि झरोखानुमा फ्रेम देख मुझे लगा इसमें दिए के  सिवा और कुछ ना जचेगा.बना रही थी की,ये पंक्तियाँ ज़ेहन में छाती गयीं....

रहगुज़र हो ना हो,जलना मेरा काम है,
जो झरोखों में हर रात जलाई जाती है,
ऐसी इक  शमा हूँ मै..शमा हूँ मै...

 परछाईयों संग झूमती रहती हूँ मै,
सदियों मेरे नसीब अँधेरे हैं,
सेहर होते ही बुझाई  जाती हूँ मै...


शनिवार, 30 जुलाई 2011

तलाश--एक क्षणिका...



रही तलाश इक दिए की,
ता-उम्र इस शमा को,
कभी उजाले इतने तेज़ थे,
के  , दिए दिखायी ना दिए,
या जानिबे मंज़िल  अंधेरे थे,
दिए जलाये ना दिए गए......

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

नीले तालाब का खामोश दर्पण..


बचपनकी एक यादगार जगह! हमारे खेत में तीन कुदरती तालाब थे. अब तो खैर सभी सूख गए हैं. उनमे से एक तालाब  से मुझे कुछ ख़ास ही लगाव था. दादीमाँ और माँ बगीचे में तरह तरह के फूल पौधे  लगाती रहती और मै उन्हें लगाते  हुए देखा करती. जब मुझे कोई नही देख रहा होता तो उन्हें उखाड़ के मै मेरे पसंदीदा तालाब के किनारे ले जाती. अपने खिलौनों के औज़ारों से वहाँ गड्ढे  बनाके रोप देती.मेरी तब उम्र होगी कुछ पाँच साल की.. तालाब में से पानी निकाल नियम से उन्हें डालती रहती और ये पौधे वहाँ खूब फूलते .

लेकिन क्यारियों में से पौधे जब गायब दिखते तो माँ और दादी दोनों हैरान हो जातीं! एक बार दादीमाँ  को कहते सुना," पता नही इन पौधों को चूहे उखाड़ ले जाते हैं?"( उन्हें क्या पता था की,उनके घर में एक चुहिया है जो उखाड़ ले जाती है!!)
एक बार  दादी माँ दादा से कह रही थीं ," वो जो शीशम के पेडवाला तालाब है वहाँ girenium   और hollyhocks  खूब उग रहे हैं! आपने भी देखा ना! समझ नही आता वहाँ उनकी पौध कैसे पहुँच जाती है?"
और इसी तरह बरसों बीते. उस एक शाम के बाद मै उस तालाब के किनारे बरसों तक नही गयी और बाद में वो सूख ही गया. सूख जाने से पहले वो कुछ ऐसा-सा दिखता था,जैसा की,चित्र में दिख रहा है.
सफ़ेद सिल्क पे तालाब और आसमान जल रंगों से बना लिए. फूल पौधे कढाई कर के बनाये हैं.

आईना देख,देख,
हाय रोया मेरा मन,
शीशे ने कहा पलट के,
खो गया तेरा बचपन.
पहन के बड़ी बड़ी चप्पल,
चलते थे नन्हें,नन्हें क़दम,
जब तन पे ओढ़ा करती,
माँ दादी की पैरहन..
छूटेंगी   तेरी सखियाँ,
छूटेंगी  नैहर की गलियाँ,
छूटेंगी दादी,माँ और बहन,
छूटेगा  अब ये आँगन,
न लौटेगा मस्तीभरा सावन,
छूटेंगी ये गुड़ियाँ,
जिन्हें ढूँढेंगे तेरे दो नयन,
यादोंकी गली में रह जाएगा
नीले तालाब का खामोश दर्पण,
खोयेगी बहुत कुछ,
तब मिलेंगे तुझको साजन...

सोमवार, 4 जुलाई 2011

उड़ जा ओ परिंदे!


पँछी  तो कढाई से बना है. पत्तों के लिए सिल्क हरे रंग की छटाओं   में रंग  दिया और आकार काट के सिल दिए. घोंसला बना है,डोरियों,क्रोशिये और धागों से. पार्श्व भूमी है नीले रंग के, हाथ करघे पे बुने, रेशम की.

चल उड़ जा ओ परिंदे!
तू नीड़ नया बना ले रे ,
न आयेगा अब लौट के,
इक बार जो  फैले पंख रे,
जहाँ तूने खोली आँखें,
जहाँ तूने निगले दाने रे !


रविवार, 26 जून 2011

दूर अकेली चली......



कपडेके चंद टुकड़े, कुछ कढाई, कुछ डोरियाँ, और कुछ water कलर...इनसे यह भित्ति चित्र बनाया था...कुछेक साल पूर्व..


वो राह,वो सहेली...
पीछे छूट चली,
दूर  अकेली  चली  
गुफ्तगू, वो ठिठोली,
पीछे छूट चली...

किसी मोड़ पर  मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली...

धुआँ पहन  चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
जब बनी ज़िंदगी पहेली
वो राह ,वो सहेली...

ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...


मंगलवार, 14 जून 2011

ख़्वाबों का एक आशियाना....

बचपनसे एक ऐसे ही मकान का ख्व़ाब देखा करती थी....ख़्वाब तो आज भी आता है....फूलों भरी क्यारियों से घिरा एक आशियाना दिखता है,जो मेरा होता है....नीला,नीला आसमान....छितरे,छितरे अब्र, और ठंडी खुशनुमा हवाएँ!!उन क्यारियों में मै उन्मुक्त दौडती रहती हूँ....और फिर अचानक सपना टूट जाता है!


क्यों  दिखता  है   मुझको , वो सपना?
जब न कहीं वो ख़्वाबों-सा आशियाना,
ना फूलों भरी खिलखिलाती क्यारियाँ,
ना वो रूमानी बादे सबा,ना नीला आसमाँ!
था वो सब बचपन औ'यौवन का खज़ाना,
अब कहाँ से लाऊं वो नज़ारे औ' नजराना?



सिल्क के कपडे पे पहले जल रंगों से आसमाँ और क्यारियाँ रंग लीं. मकान,पेड़ क्यारियों के फूल....ये सब कढ़ाई से बनाये हैं.





 

बुधवार, 1 जून 2011

करूँ तो क्या करूँ?

मैंने पिछले   आलेख में सोचा था,की,माँ बेटी के रिश्ते पे अधिक प्रकाश डालूँगी...लेकिन नही डाल पायी..
अजीब-सी मनस्थिती बनी हुई है. जानती हूँ,की,ये गहरा डिप्रेशन है...उभरना चाहती,हूँ,पर और अधिक डूबती जा रही हूँ...कारण केवल माँ-बेटी के दरमियान का मन मुटाव नही है. बेटी को तो मैंने कबका माफ़ कर दिया...बल्कि उसे दोषी पाया ही नही...मै तो स्वयं को ही दोषी मान के चली हूँ.

इधर मेरी ये हालत है,की,ना लेखन में मन लगता है,ना बागवानी में,ना सिलाई कढ़ाई में. अवस्था बहुत भयावह है...मै खुद इसका बयान नही कर पा रही हूँ...इसी कारण ब्लॉग पे कुछ लिखा भी नही. ब्लॉग पे कुछ पढने में भी मन नही  लगता...हालाँकि कोशिश करती रहती हूँ...नही मालूम की,इस अवस्था से कब और किस तरह बाहर निकल पाऊँगी..दवाई भी ले रही हूँ,लेकिन सब कुछ जैसे बेअसर है...

बस....फिलहाल इतना ही...फिर एक बार अपने ब्लॉगर दोस्तों के आगे  एक सवाल पेश कर रही हूँ...करूँ तो क्या करूँ?

रविवार, 8 मई 2011

एक माँ की मौत...आज ही के रोज़!- 1

आज मदर'स डे....इस दिन उसे कुछ साल पूर्व का मदर'स डे बेसाख्ता याद आ जाता...कितनी ही कोशिशें कीं,पर वो भुला नहीं पाती...

उन दिनों उसके परिवार में एक अजीबो गरीब वाक़या घटा था...एक परिचित ने ना जाने किस जनम का बदला निकालना  चाहा  था.... उसपे बेहद घटिया क़िस्म के आरोप  लगा,वो मेल्स उसके पती तथा बेटी को भेजे थे..बेटी ब्याहता थी....अपने मायके आयी हुई थी..परिचित ने केवल मेल भेज के तसल्ली नही की थी. नेट पर भी मनगढ़ंत इल्ज़ामात की बरसात कर दी थी.

कैसी विडम्बना थी की,उसके अपने परिवार को,जिसने उसे बरसों जाना परखा था,एक  'अ'परिचित व्यक्ती बिखरा रहा था! ऐसी घड़ी में उसे संबल देनेके बदले उसे शक के कटघरे में घेर लिया था....उसे खुद नही पता की,वो दिन रात कैसे काट रही थी...अपने हाथों को फानूस बना,उसने परिवार की ज्योत से टकराई हर आँधी से सामना किया था...लेकिन परिवार को आँच न लगने दी थी.

उस दिन उठी तो उसे मदर'स डे होने का एहसास हुआ. अपनी लाडली को शुभ कामनाएँ देने वो उसके कमरे में गयी....उसने बिटिया को गले लगाना चाहा ....पर ये क्या..? बिटिया ने एक झटके से उसे धकेल दिया और कहा, "माँ ! तुमने मुझे पैदा होते ही मार क्यों न दिया? मेरा गला क्यों घोंट न दिया? मत छुओ मुझे...!."
उसपे मानो बिजली गिरी!

उसे अनायास अपनी दादी और दादा की बातें याद आ गयीं! वो बताया करते थे,की,जब उनकी इस पहली पोती का जन्म हुआ तो परिवार में कितनी खुशियाँ मनी थीं! उन सभी को लडकी की चाह थी और वो पूरी हो गयी थी! परिवार ने क्या,पूरे गाँव ने खुशियाँ मनाईं थीं!

उस लाडली पोती का यथावकाश प्रेम विवाह हुआ....और उसे भी पहली औलाद एक बिटिया ही हुई...लेकिन उसकी बिटिया का कोई स्वागत नही हुआ...कोई खुशियाँ नही मनी...बल्कि उसे एक बोझ ही माना गया...वो अपनी बिटिया के लिए ढाल और कवच बन गयी...उसके परवरिश  की पूरी ज़िम्मेदारी उसी पे थी...अपनी बिटिया के लिए एक पैसे की वस्तू भी ख़रीदनी हो तो उसपे ऐतराज़ किया जाता...कैसे कैसे दिन काटे उसने....किस तरह पढ़ाया लिखाया...वही जाने...

उसकी बिटिया जब पैदा हुई तो वो उसे रेशम की डोर से भी खरोच पहुँचे,बर्दाश्त नही कर पाती.....उसका वो गला घोंट देती??उस के दादा दादी गर जान जाएँ की उनकी सब से अधिक लाडली पोती को उसी की बेटी ने आज के दिन कैसे अलफ़ाज़ सुना दिए थे?

जिस दिन उसकी बेटी जन्मी थी,एक माँ जन्मी थी...बल्कि उसकी बिटिया का जनम मदर'स डे के दिन ही हुआ था! आज जब दुनिया माँ को सलाम कर रही थी,उसकी बेटी ने उसे बेमौत मार डाला था! हाँ! उस एक अनजान दुश्मन के बदौलत एक बेटी ने अपनी माँ की मानो ह्त्या कर दी थी....!

उस के बाद कई मदर'स डे  आये गए....लेकिन वो अपनी बेटी के कठोर अलफ़ाज़ भूल नही पायी...

'वो' और कोई नही,मैही हूँ....नही पता की,इतनी व्यक्तिगत बात ब्लॉग पे लिखना सही है या नही....लेकिन आज न जाने क्यों,मुझ से ये बात साझा किये बिना रहा नही गया....कोई बताएगा मुझे,की,मुझ से ऐसी क्या गलती हुई होगी,बिटिया की परवरिश  में, जो मुझे ये अलफ़ाज़ सुनने पड़े?

लग  रहा  है  की ,हालिया  घटी  कुछ  घटनाओं  का  ब्यौरा  देना  भी  आवश्यक  है ....इसलिए :
क्रमश:


बुधवार, 4 मई 2011

दुनियादारी और पगली....




हमने छोड़ दी सारी
दुनिया और दुनियादारी,
सिर्फ किसी एकके लिए,
जिनके लिए छोडी,
वो थे  दुनियादार बड़े!
पलटके हँसी उडाई,
बोले, वो सकते नही,
छोड़, दुनिया उनकी,
एक पगलीके लिए.....

सबक सीख सको तो सीखना.
 मत लगाना ,अपनी दुनिया,
दाँव पे किसी एक के लिए,
दुनियामे  नही पागल ऐसा ,
जो छोड़ दे अपनी   दुनिया ,
किसी एक पागल के लिए....


शनिवार, 23 अप्रैल 2011

रिश्ता


तुम से दोस्ती की है,इसलिए कहने का मन करता है...
केवल ग़रज़   की खातिर नाता कभी ना जोड़ना,
असुविधा लगे तो झट से कभी ना तोड़ना...

खून का नहीं,इसलिए कौड़ी   मोल  ना समझना ,
भावनाओं का मोल जानो,बड़प्पन  में खो ना जाना...

ज़िंदगी के हर मोड़ पे नया रिश्ता जुड़ता है,
जीवन भर पूरा हो,इतना प्यार मिलता  है...

अपनी अंजुरी आगे करना ,अभिमान ना धरना,
सिर्फ व्यवहार का लेनदेन  बीछ में ना लाना...

जितना मिले,लेते रहना,जितना हो देते रहना,
लिया दिया जब ख़त्म हो ,और मांग लेना...

 समाधान में होता है समझौता..इसे मान लो,
रिश्ता बोझ नहीं,तहे दिल से समझ लो...

बस,विश्वास के चार शब्द...दूसरा कुछ मत देना,
समझबूझ के रिश्ता निभाना,कुछ क़दम चल,पीछे मत हटना....  

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

पलक भी ना झपकी.....

जिस रात की,चाहते थे, सेहर ही  ना हो,
पलक भी ना झपकी ,बसर हो गयी! 

उस  की पैरहन पे सितारे जड़े थे,
नज़र कैसे  उतारते ,सुबह हो गयी!

झूम के खिली थी रात की रानी,
साँस भी ना ली ,खुशबू फना  हो गयी...

जुगनू ही जुगनू,क्या नज़ारे थे,तभी,
निकल  आया  सूरज,यामिनी छल   गयी!




सोमवार, 11 अप्रैल 2011

डूबते हुये...


डूबते हुए हमे,वो लगे,
जैसे किनारे हो हमारे !
जितनेही पास गए,
वो उतनाही दूर गए,
वो भरम थे हमारे
वो कोई नही थे सहारे
उनके सामने हम डूबे
लगा,उन्हें पानीसे भय लगे!

राम नवमी की सभी दोस्त पाठकों को अनेक शुभकामनायें!


रविवार, 3 अप्रैल 2011

कीमत हँसी की.....


  क़ीमत हर हँसी की
 अश्क़ों से  चुकायी,
पता नही और कितना
कर्ज़ रहा है बाक़ी,
आँसूं  हैं, कि, थमते नही!


मंगलवार, 22 मार्च 2011

तनहा,तनहा....



सर्दियों का मौसम था. हम लोग एक और मित्र परिवार के साथ भरतपूर Bird sanctuary देखने गए थे.
एक शाम, मै अकेली गेस्ट हॉउस के बरामदेमे बैठी  हुई थी. उस अतीव नीरवता में पंछिओं का कलरव बहुत प्यारा लग रहा था. अचानक,मेरा ध्यान पास ही के एक जलाशय पे गया. Heron जातिका बगुला एक पैर पे स्तब्ध खड़ा अपना शिकार ढूँढ रहा था. आस पास तो बहुत  परिंदे थे,लेकिन ये जलाशय  दूर दूर तक सूना पड़ा हुआ था.
आसमान में अब शाम के रंग ख़त्म हो चुके थे.निशाने चुपके चुपके अपने आगमन का पैगाम पहुँचा दिया था!

मैंने अपना सिलाई कढाई का डिब्बा खोला और  उस वक़्त के आसमान और जलाशय बनानेके लिए  ज़रूरी कपडे के तुकडे,धागे,रंग आदि का जुगाड़ करने लगी.

एक सफ़ेद सिल्क के टुकड़े को ग्रे जलरंग से रंग लिया. उसके बीचो  बीच  हल्का नीला/ग्रे रंग का raw सिल्क का टुकडा सिल दिया. वहाँ पे सीधे तिरछे टाँकों से घाँस फूँस बना ली. कढाई से पेड़ और परिंदा बन गए. नीचे जो घाँस की पातें दिख रही हैं,उन्हें बनाया है,स्टार्च किये हुए शिफोन के तुकडे में से! उस तुकडे में से पत्तियों के आकार काट लिए और सिल दिए! गोल फ्रेम तो घर लौटने पे बना.
इस चित्र को जब कभी देखती हूँ,तो नितांत सूना पन मन में भर आता है.... लगता है,दूर दूर तक कहीँ इंसानी बस्ती नहीं! बस इसी ख़याल में से उभरी ये रचना!


ओ! सुन, आसमान वाले, मेरा कहना!
मुझे इतनी अकेली कभी  न करना! 
शाम ढले,कोई तो साथ हो मेरा अपना, 
मुझ पे तनहाई का यूं  सितम मत ढाना, 
दूर हों दुनिया में वो प्रियतम चाहे जहाँ,
यादों के साथ,उन्हें भी पास ले आना!







शुक्रवार, 18 मार्च 2011

होली जो भुलाये नहीं भूलती!

हम  उन  दिनों  मुंबई  में  थे . मार्च का महीना था. होली अब के शुक्रवार को थी,इस कारण लम्बा वीक एंड मिल गया था. मेरी चार सहेलियाँ नाशिक से बृहस्पतवार की शाम को ही आ पहुँचीं थीं. खूब गपशप  का माहौल बना हुआ था. मैंने काफी सारे व्यंजन,होली के मद्देनज़र बना के रखे थे. शुक्रवार की सुबह मालपुए बनाने का इरादा था. सोचा सबको नाश्तेमे यही परोसा जाये. उसी की तैय्यारी में मै रसोई में लगी हुई थी.

रसोई  को लग के बैठक थी,सो साथ,साथ गप भी जारी थी. होली पे फिल्माए गए गीत सुननेकी चाह में टी वी  भी चल रहा था.इतने में दरवाज़े पे घंटी बजी. मै पहुँची तब तक अर्दली ने दरवाज़ा खोल दिया था. बता दूँ की मेरे पती तब ऊंचे ओह्देपे (CID )में सरकारी मुलाजिम थे. दरवाज़े पे आयी हुई टोली हमारी सोसायटी के लोगों की ही थी.उस में अधिकतर भारतीय प्रशासनिक सेवामे कार्य रत थे.
"कहाँ हैं तुम्हारे साहब  ?" किसीने अर्दली को सवाल किया.
"जी, वो तो बाथरूम में हैं!" अर्दली ने बताया!मै झट इनके छुटकारे के लिए आगे बड़ी और कहा," आप सब को होली मुबारक हो! दरअसल,ये अर्दली अभी,अभी पहुँचा है....इसे नहीं पता की,ये तो सुबह साढ़े छ: बजे ही अपनी गोल्फ किट लिए गोल्फ कोर्स पे गायब हो चुके हैं!"
"अरे, ये जनाब कहीं बाथरूम में छुप के तो नहीं बैठे?"किसी ने अपनी शंका व्यक्त की!
"नहीं,नहीं...ये तो वाकई सुबह गोल्फ खेलने चले जाते हैं...मै रोज़ ही देखता हूँ....चलो,चलो...इन्हें फिर कभी धर लेंगे...",हमारे एकदम सामने रहनेवाले और बेहद करीबी पड़ोसी,रमेश  जी ने  कहा. सब ने मान लिया !

"लेकिन,आपके हाथ के व्यंजन खाने तो हम ज़रूर आयेंगे!" उनमे से एक ने कहा!
"जी...जी...ज़रूर!!"मैंने कहा...मेरी जान छूटी. पतिदेव को होली खेलना क़तई भाता नहीं! ये तो सचमे बाथरूम में थे! दरवाज़ा बंद होते ही मै बाथरूम के दरवाज़ेपे पहुची,तथा खट खटा के कहा," मै जब तक कहूँ ना,आप बाहर मत आना!" कहके मैंने बाहर से कूंडी लगा दी!
अब हम सहेलियों का गपशप का दौर दोबारा जोर पकड़ गया! मै गरमागरम मालपुए बना बना के मेज़ पे भेजती जा रही थी....हंसी मजाक चल रहा था...फ्लैट सड़क के काफी करीब था,सो सड़क परकी सारी पी,पी,पों,पों सुनायी देती जा रही थी!
"पिया तोसे नैना लागे रे!" ये गीत टी वी पे आया था. उसपे सबने जमके चर्चा  की. चर्चा क्या,खूब तारीफ हुई...guide के दिन याद किये,अदि,अदि.

कुछ डेढ़ घंटा या शायद उससे अधिक बीत गया. जमादारनी आयी तथा  सीधे मेरे कमरे में गयी और फिर घबराई-सी बाहर आके मुझ से मुखातिब हुई," बाई साहब...! आपने कहना तो था,की साहब अन्दर हैं...मै तो कूंडी खोल सीधे अन्दर पहुँच गयी!"
इतने में पसीने में तरबतर हुए,ये भी सामने आये! मैंने चकराके सवाल किया," अरे! आप गोल्फ खेलने नहीं गए?"
"हद करती हो! गोल्फ खेलने नहीं गया! मुझे बाथरूम में बंद कर के तुम निकल आयीं....ये तक नहीं बताया की,किसलिए बाहर आने से रोक रही हो...pot पे बैठे, बैठे दोनों अखबार तीन,तीन बार पढ़ लिए...मुम्बई की गर्मी अलग! बताओ,गोल्फ खेलने कैसे जाता? तुम्हें इतने भी होश नहीं? दरवाज़ा  भी खडकाने से डर रहा था,की,पता नहीं तुमने क्यों टोक दिया है!" पतिदेव उबल पड़े! और मेरे कुछ देर के लिए होश उड़ गए! मै अपनी रसोई और अपनी गपशप में इन्हें बंद कर के भूलही गयी थी!
मेरी शक्ल पे हवाईयाँ उडती देख,मेरी सहेलियाँ ज़ोर ज़ोरसे हँसने लगीं! एक इनसे मुखातिब होके बोली," चलिए, ये होली भी खूब याद रहेगी! लोग रंगों से भीगते हैं,आप पसीने से भीग रहे थे!"
ना जाने कितने साल बीत गए,पर ये बेवकूफी भुलाये नहीं भूलती! बल्कि हर होली पे याद आही जाती है!
















शुक्रवार, 11 मार्च 2011

ना खुदाने सताया...

कभी,कभी ज़िंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं,जहाँ केवल सवाल ही सवाल होते हैं! हर तरफ चौराहे...जिन्हें अपना माना,जान से ज्यादा प्यार किया...पता चलता है,वो तो परायों से बद्दतर निकले! किस पे विश्वास करें? आखिर ज़िंदगी का मकसद क्या है....बस चलते रहना?महीनों गुज़र जाते हैं,हँसी का मुखौटा ओढ़े और अन्दर ही अन्दर गम पिए! इम्तिहान की घड़ियाँ बिताये नहीं बीततीं! शायद ऐसे किसी दौर से गुज़रते हुए ये रचना लिख दी है!

ना खुदाने सताया
ना मौतने रुलाया
रुलाया तो ज़िन्दगीने
मारा भी उसीने
ना शिकवा खुदासे
ना गिला मौतसे
थोडासा रहम  माँगा
तो वो जिन्दगीसे
वही ज़िद करती है,
जीनेपे अमादाभी
वही करती है...
मौत तो राहत है,
वो पलके चूमके
गहरी  नींद सुलाती है
ये तो ज़िंदगी है,
जो नींदे चुराती है
पर शिकायतसे भी
डरती हूँ उसकी,
गर कहीँ सुनले,
पलटके एक ऐसा
तमाचा जड़ दे
ना जीनेके काबिल रखे
ना मरनेकी इजाज़त दे....


सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

मुकम्मल जहाँ ...एक क्षणिका ...


मैंने कब मुकम्मल जहाँ माँगा?
जानती हूँ नही मिलता!
मेरी जुस्तजू ना मुमकिन नहीं !
अरे पैर रखनेको ज़मीं चाही,
माथे पर   एक टुकडा आसमाँ,
पूरी दुनिया तो नही माँगी?


शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

ख्वाबोंकी रह्गुज़र

खादी सिल्क के कपडे पे पहले जल रंगों  से रंग  भर दिया और ऊपर से कढाई कर दी.रास्तेका जो रंग है,वही कपडेका मूल रंग था.

हक़ीक़त की बंजर डगर से,
आओ ज़रा-सा  हटके चलें,
चलो ,ले चलूँ हँसी नज़ारों में,
ख्वाबोंकी शत रंगी रह्गुज़रमे!
छाँव घनेरी ,धूप प्यारी  सुनहरी,
दूर के उजालों की सुने सदाए,
उलझा लो दामन को सपनों से,
चले जाना जब असलियत बुलाये!

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

क्यों बसंत रूठा?



ऊन तथा रेशम के सूत से ये भित्ती चित्र मैंने बनाया है.

शोर उठा था नगर में,
आया है बसंत पूरी बहर में, 
हमने भी सजाई क्यारियाँ,
सुन परिंदों की किलकारियाँ! 
जाने क्या बात हुई,क्या  हुई ख़ता ,
मेरी छोड़ सब की फूलीं फुलवारियाँ! 
मुझ से ही  क्यों बसंत रूठा,
क्यों हुई मेरी  रुसवाईयाँ?
तब से आहें भरना छोड़ दिया,
किस आह की सुनवाई यहाँ?




गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

चश्मे नम मेरे....










परेशाँ हैं, चश्मे नम मेरे,

कि इन्हें, लमहा, लमहा,

रुला रहा है कोई.....



चाहूँ थमना चलते, चलते,

क़दम बढ्तेही जा रहें हैं,

सदाएँ दे रहा है कोई.....




अए चाँद, सुन मेरे शिकवे,

तेरीही चाँदनी बरसाके,

बरसों, जला रहा कोई......





शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

यादें....एक शाम की!

चंद यादें अपने ब्लॉगर दोस्तों से साझा किये बिना रहा नही गया!ये तसवीरें हैं २० जनवरी की एक शाम की. मौक़ा है मेरे बेटे की शादी का स्वागत समारोह.वैसे ब्याह १५ जनवरी को हुआ.
सबसे पहली तसवीर,बाएं से दायें,मेरी (क्षमा, गुलाबी साड़ी में ) तथा मेरी जेठानी जी की.
बाएं से दायें,बंद गलेके सूट में,वर-पिता(मेरे पति!),बेटा,बहू,तथा मै.
चंद दोस्तों के साथ,हम दोनों तथा वधू-वर.
फिर एकबार कुछ अज़ीज़ दोस्तों के साथ,हम दोनों और वधू-वर.
बाएं से दाए,मेरे भाई का बेटा, भाभी,वधू,वर,मै और मेरा भाई.
कुछ परिवारवाले और कुछ अज़ीज़ दोस्त.

वर और वधू.प्रेम विवाह है और दोनों टेलिकॉम कंपनी में कार्यरत हैं.फिलहाल दो अलग,अलग शहरों में!
आप सभी के शुभाशीष की   आशा करती हूँ!












शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

दीवारें बोलती नही..

क्षमा प्रार्थी हूँ,की, एक पुरानी रचना पेश कर रही हूँ....!


खादी सिल्क से दीवारें तथा रास्ता बनाया है..क्रोशिये की बेलें हैं..और हाथसे काढ़े हैं कुछ फूल-पौधे..बगीचे मे रखा statue plaster ऑफ़ Paris से बनाया हुआ है..

 सुना ,दीवारों  के  होते  हैं  कान ,
काश  होती  आँखें और लब!
मै इनसे गुफ्तगू   करती,
खामोशियाँ गूंजती हैं इतनी,
किससे बोलूँ? कोई है ही  नही..

आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं  मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...

सजी बगिया को ,रहता है  फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर  कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...


मंगलवार, 4 जनवरी 2011

दूर रेह्केभी ......


दूर रेह्केभी क्यों
इतने पास रहते हैं वो?
हम उनके कोई नही,
क्यों हमारे सबकुछ,
लगते  हैं वो?
सर आँखोंपे चढाया,
अब क्यों अनजान,
हमसे बनतें हैं वो?

वो अदा थी या,
है ये अलग अंदाज़?
क्यों हमारी हर अदा,
नज़रंदाज़ करते हैं वो?
घर छोडा,शहर  छोडा,
बेघर हुए, परदेस गए,
और क्या, क्या, करें,
वोही कहें,इतना क्यों,
पीछा करतें हैं वो?

खुली आँखोंसे नज़र
कभी आते नही वो!
मूंदतेही अपनी पलकें,
सामने आते हैं वो!
इस कदर क्यों सताते हैं वो?
कभी दिनमे ख्वाब दिखलाये,
अब क्योंकर कैसे,
नींदें भी हराम करते हैं वो?

जब हरेक शब हमारी ,
आँखोंमे गुज़रती हो,
वोही बताएँ हिकमत हमसे,
क्योंकर सपनों में आयेंगे वो?
सुना है, अपने ख्वाबों में,
हर शब मुस्कुरातें हैं वो,
कौन है,हमें बताओ तो,
उनके ख्वाबोंमे आती जो?
दूर रेह्केभी क्यों,
हरवक्त पास रहते  हैं वो?