शनिवार, 5 दिसंबर 2009

२ क्षणिकाएँ !


दिल जलाये रक्खा था....

दिल जलाये रक्खा था,
तेरी रौशने रातों की खातिर,
शम्मं हर रात जली,
सिर्फ़ तेरे खातिर...
सैकड़ों गुज़रे गलीसे,
बंद पाये दरवाज़े,
या झरोखे,दिले बज़्म के,
सिवा उनके लिए,
वो जो मशहूर हुए,
वादा फरोशी के लिए...

२) चले आएँगे तेरे पास!

चले आएँगे तेरे पास,
जब तू ठहर जाएगा...
अपनी रफ़्तार कम है,
ऐसे तो तू बिछड़ जाएगा...
पास आनेके सौ बहाने करने वाले ,
दूर जानेकी एक वजह तो बता देता...

सोमवार, 30 नवंबर 2009

ek safar tanhaa..2( antim)

रही तलाश इक दिए की,
ता-उम्र इक  शमा को,
कभी उजाले इतने तेज़ थे
की , दिए दिखायी ना दिए,
या मंज़िले जानिब अंधेरे थे,
दिए जलाये ना दिए गए.....

मै क्या कहूँ,की, मै कहाँ हूँ? मुझे खुद खबर नही...ना राह ना रहनुमा..कान पे हाथ रख लेती हूँ, की, खामोशियाँ सुनायी न दे..जिसका सब कुछ छीन गया हो, उसकी क़िस्मत क्या होगी? नह्नीं औलाद छिन गयी...जो मेरी ज़िंदगी थी..मै उसे लोरी गाके सुला नही सकती...ना अपना दूध पिला सकती..रोती नही,की, मनाये कौन..आँसू पोंछे  कौन ?? मेरे सफ़र का अंत कहाँ? मेरे अंत के  साथ? .. क्या मेरा अंत हो नही गया जब एक माँ को अपनी औलाद से जुदा कर दिया गया? उस दूधमुही बच्ची का क्या कुसूर?

ज़िंदगी की हर तमन्ना मर चुकी...तो मुझे कौन ज़िंदा कहेगा?? मुझे खबर नही के मेरे जिगर का टुकडा..मेरी लाडली कहाँ है..मै अपनी दुनिया उसपे वार दूँ, गर पता चले वो है कहाँ...इस देशमे या परदेसमें?? क्या वहाँ से गुज़रती हुई हवा मुझे बताएगी? क्या चाँद मेरी लोरी उसे सुनाएगा? अपनी दास्तान सुना रही हूँ,तो आँसू थामे नही थमते..

मेरी लाडली को कौन बहलाता होगा जब वो रोती होगी ?? कौन खिलाता होगा? कौन सुलाता होगा? उसकी तलाश मेरी ज़िंदगी का मक़सद है...वहीँ से शुरू वहीँ ख़त्म...मैंने ऐसा कौनसा दुष्कर्म किया होगा जिसकी मुझे सज़ा मिल रही है...?? मै अपनी हर की न की खता स्वीकार कर लूँ गर मुझे मेरी बच्ची की खबर मिले..खबर मिले की,वो सही सलामत है...ईश्वर उसे किस गुनाह की सज़ा दे रहा है? इतनी-सी जान कभी कोई खता कर सकती है,जिसकी उसे सज़ा मिल रही है?

रातों में वो मेरी बाँहों में आ जाती है...गर नींद लगती है..कभी मै अपनी माँ की बेटी बन जाती हूँ..कभी अपनी बिटिया को सीने से लगा लेती हूँ...रातों मेही जी सकती हूँ...दिन के उजाले मुझे रास नही आते..

अगली कड़ी क्या लिखूंगी? मेरी दास्ताँ   का अंत मुझे खुद नही पता...इसलिए यहीं बिदा लेती हूँ..इस दुआ के साथ,की, दुनियामे जीते जी, किसी माँ की औलाद इस तरह कोई ना छीने..

समाप्त

बुधवार, 18 नवंबर 2009

Ek safar tanhaa..

एक लम्बा तनहा सफ़र...जहाँ दूर दूरतक छाया नही...मानो रेगिस्तान हो..मील के पत्थर कहाँ खोजूँ? बरसों मिला नही...यही पता नही की, कितना दूर निकल आयी हूँ..सरपे धूप रही या रातमे अँधियारा...जो राह दिखाए वो तारा कहीं नही था..युग  बीते..मध्यान्य का सूरज  ...परछाई पैरों तले...दिशा कैसे पता चले? कैसा भयानक दिशा  भ्रम है?

कुछ  तो कहीं रहगुज़र होती...कोई हमसफ़र होता...पर सब कब बिछड़ गए,कैसे बिछड़ गए? एक शोर-सा सुनायी देता था..पर उसे सुने भी अरसा हुआ..कहाँ है मंजिल मेरी...??उस धूलसे सने मीलके पत्थर के पास? जिसे मै पीछे छोड़ आयी..? लौटने के लिए राह नही...आगे,आगे चलती हूँ...पीछे छूटी सराय  के दरवाज़े बंद हो जाते हैं...सराय भी कैसी? अंधेरी..बिना छतकी..दीवारों पे उल्लू और चिमगादर....बस वही ज़िंदगी का निशाँ...मै तो डरना भी भूल चुकी हूँ...ज़िंदगी के निशाँ खोज रही हूँ...गर मेरे साथ उड़े तो ये परिदे भी चलेंगे...लेकिन मेरे लिए ये क्यों अपना बसेरा छोड़ेंगे? 

इन राहों पे लुटेरे भी नही,जिनपे मै चल रही हूँ...क्यों होंगे यहाँ लुटेरे जब पास कोई खजाना भी नही..दरबदर भटकता जीवन..आस के सारे पाखी उड़ गए या मैंने उड़ा दिए? खबर नही..रात कभी रेतपे सो जाती हूँ...तो सपनों में अपनी माँ दिखाई देती है...जो नही रही...सखियाँ जो कबकी साथ छोड़ कहीँ खो गयीं..माँ जो लोरी गुनगुनाती थी,वो भी सुनायी देती रहती है...काश सपने टूटे ना..मै रातों में जी लूँगी...ये हाथसे छूटे ना..

क्रमश:

रविवार, 8 नवंबर 2009

kyon? kyon?

क्यों करते हैं याद उनको,
जो हमें याद करते नही?
क्यों तकते हैं राह उनकी,
जब वो इधरसे गुज़रते नही?
रोज़ करते सिंगार, जबकि,
वो पलक उठा के देखते नही?
दौड़ते हैं खोलने द्वार, जानके भी,
आदतन,के ये कमबख्त जाती नही !

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

Aahat

दूर  से  इक आहट आती रही,
ज़िंदगी का  सामाँ   बनाती रही,
चुनर हवा में उडती रही,
किसीने आना था नही,
हवा फिर भी गुनगुनाती रही..
दूर से इक आहट आती रही..

शनिवार, 24 अक्तूबर 2009

soonee galee kaa mod....

रुको ,मै  अभी  आया ,
कह के जानेवाला,
कभी नही लौटा,
ना कहता तो सब्र होता,
सूनी गली के मोडको,
या द्वार के चौखट को,
परछाई या आहट को,
बैठे, बैठे,मन ना तकता..

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

hansee kee namee...ek kshanika

वो धीरे से हँस दिए,
लगा, आह निकली सीने से...
आँखें भरी,भरी-सी थी,
होटों पे हँसी की नमी थी..

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

मुकम्मल जहाँ ...ek kshanika...

मैंने कब मुकम्मल जहाँ माँगा?
जानती हूँ नही मिलता!
मेरी जुस्तजू ना मुमकिन नहीं !
अरे पैर रखनेको ज़मीं चाही
पूरी दुनिया तो नही मांगी?

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

2 kshanikayen

१)संगदिल सनम

पहले   तो  सनम  ने हमें  आँसू  बना आँखों   में  बसाया  ,
बेदर्द , संगदिल  निकला ,  आँसू  को  संगपे  गिरा  दिया !


२ ) निशाने ज़ख्म

रहने दो ये ज़ख्मों  निशाँ,
क्यों चाहो इन्हें मिटाना ?
ये सौगाते तुम्हारी हैं,
सिमटी -सी यादें तुम्हारी हैं,
सब तो छीन लिया,
छोडो, जो  दिल में हमारी हैं !

शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2009

waqt

 वक़्त

हम  ना  भी  गँवाते ,
लम्हों ने गुज़रना था,
मुट्ठी में क़ैद करते,
वक़्त ने फिसलना था,
अपने पैरों को जमाते,
ज़मीं ने खिसकना था!

बुधवार, 30 सितंबर 2009

do kshanikayen ...

१) देर ना कर राही...

देर कर राही , अपनी मंजिल खोज ले ,
नही लौटने वाले ये क़ीमती लम्हें ,
या हाथ पकड़ इन राहों के ...
भोर तेरी मंजिल , तय कर ले ..

२ )ग़म का  इतिहास  

लंबा गम का इतिहास यहाँ ,
किश्तों में सुनाते   हैं ,
लो अभी शुरू ही किया ,
और वो उठके चल दिया ?

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

सिमटे लम्हें...

' बिखरे सितारे' इस ब्लॉग से अलग यह ब्लॉग बनाया...वजह, यहाँ रोज़मर्रा की कुछ घटनाएँ पाठकों के साथ सांझा कर सकूँ...

' बिखरे सितारे ' एक धारावाहिक है।' सिमटे लम्हें', ये स्वतंत्र विचारोंका एक प्रवाह होगा..कभी गद्यमय तो कभी पद्यमय। एक अन्य ब्लॉगर सहेली को आमंत्रित करना चाहती हूँ,कि, ब्लॉग की उपेक्षा ना हो जाय।

' बिखरे सितारे' पे की गयीं कुछ काव्य रचनाएँ यहाँ ज़रूर डाल दिया करूँगी, क्योंकि, कुछ पाठकों के पास धारावाहिक पढ़नेका समय नही होता।

एक 'दैनन्दिनी' की तरह ये ब्लॉग होगा...जो झूलेकी तरह से झूलेगा...वर्तमान से भूतमे...या फिर भविष्य में...मन होता ही ऐसा है..अस्थिर..डोलता रहता है...इसकी नकेल पकड़ना आसान काम नही..सधे हुए साधक/साधू ही ये हुनर जानते हैं....मै इसे अनिर्बंध छोड़ दूँगी...जब जहाँ वो, तब तहाँ मै...

गर कोई ब्लॉगर मित्र अपना साक्षात्कार देने के लिए राज़ी हुए, तो वह भी करना चाहती हूँ...कईयों से काफ़ी कुछ सीख रही हूँ...

आज शुरुआत है...पिछले दो दिन ब्लॉग वाणी बंद होगी ये सबको तक़रीबन विश्वास हो गया था...हुआ क्या था,ये तो अबतक नही पता..लेकिन मन नही मान रहा था,कि, बुराई का अच्छाई पे विजय हो सकता है...कदापि नही...अच्छाई मर के भी, विजयी होती है.....बुराई जिंदा भी रहे, तो पराजितों की तरह जीती है...
सबसे प्रथम सभी ब्लॉगर पाठक दोस्तों को बधाई दूँगी,कि, रावण विजयी नही हुआ....राम गर सत्य का प्रतीक हैं,तो देर सवेर जीत सत्य की ही होगी...आज फिर एकबार विश्वास हो गया। अच्छाई पे लांछन चाहे सैकड़ों लगें, लेकिन वो छुप नही सकती।

आज बस इतना ही...जब जैसा, तब तैसा...ये ब्रीद वाक्य बना रहेगा...