शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

न हीर हूँ,न हूर हूँ...

न हीर हूँ,न हूर  हूँ , न नूर की कोई बूँद  हूँ,
ना किसी चमन की दिलकश बहार हूँ...
खिज़ा  में बिछड़ी एक डाल की पत्ती  हूँ...

न धड़कने हैं,न उमंगें मेरे नसीब में,
उड़ा ले जाए सबा, पहाड़ के परे,रुकी हूँ,..
 पैर के नीचे खड़क जाउँगी,जान चुकी हूँ..

चौंक जायेगी कोई बिरहन इस आवाज़ से,
कुछ देर उसकी मायूसी तो हटा दूँगी,
मिल जाएँ उसे प्रीतम ,मै बिछड़ चुकी हूँ..

रविवार, 22 अगस्त 2010

बूँद बूँद से सागर....

ये  रहा  मेरा  नैहर  का  मकान  जो  एक  ज़माने  में  ऐसा  दिखा  करता  था !दादा दादीमाँ की मृत्यु के पश्च्यात भाई को वास्तु के अनुसार मकान की  छेड़छाड़ करने की सूझी और वो सिमेंट का एक block बन के रह गया! बल्कि,रहने लायक  ही नही रहा और माँ पिताजी वहाँ से ज़रा अलग हटके दूसरा मकान बनाना पड़ गया! खैर! ये वास्तु मेरे दादा-दादी की स्मुतियों  के साथ इतनी अधिक जुडी थी,की,याद आती रहती है!
आज जब मुंबई जैसे कुछ महानगर छोड़,बरसात ने फिर एक बार मूह मोड़ लिया है तो दादा-दादी की कई सारी बातें  याद आ रही हैं. उन में से एक प्रमुख बात थी पानी का मितव्यय,या यूँ कहें,सही इस्तेमाल.
महमानों को दिया झूठा पानी तक फिंकता नही था.एक बाल्टी में इकट्ठा होता और पौधों को दिया जाता. लोक मज़ाक उड़ाते लेकिन दादा कहते,"आपलोग जब छूके पानी फेंक देते हैं,तो लगता है,मानो किसी का खून फिंक रहा है!"
तबतक पर्यावरण वाद ये शब्द किसी ने सुना नही था.
जब कभी इलाके में  क़हत पड़ता तो गाँव के लोग हमारे कूए का रूख कर लेते.पास के शहर के लोग भी स्नानादि के लिए हमारे घर ही आते.उनके कपडे भी वहीँ धुलते. किसी किस्म का पानी कभी फेंकने नही दिया जाता.वो बड़े ड्रम्स में जमा होता और सफाई के लिए इस्तेमाल होता या  पेड़-पौधे  आदि को दिया जाता.बैल भैंस  को भी उसी पानी से धोया जाता.  बर्तन धुलके बचा पानी साग सब्ज़ी की क्यारियों  में पड़ता. हम सभी टब में खड़े हो नहाते.वो पानी गुसल खानों तथा बरामदों की सफाई के लिए इस्तेमाल होता. साबुन का पानी शाम में मजदूरों  के पैर धोने के लिए इस्तेमाल में आता. कहने का मतलब ये की पानी कभी भी किसी भी हाल में बहाया नही जाता.
क़हत में जब गाँव के लोग कुए से पानी लेने आते तो उनके साथ,आता,दूध,फल आदि बाँध के साथ दिया जाता. उनके जानवरों के लिए घर पे एक ख़ास मिकदार में घांस काट के रखी जाती जो उनके साथ दी जाती. मज़ेकी और दुःख की बात यह,की,यही लोग रात में अपने जानवरों को हमारे खेतों में चरने के लिए छोड़ देते!
ये सभी आदतें क़ुदरत की नैमत,जिसे पानी कहते हैं(और जीवन भी) बचाके इस्तेमाल करने की बेहतरीन सीख थी ! पानी जब इफरात से होता तब भी यही नियम जारी रहता. दादा पानी को देशका खून कहते.
लेकिन मेरे ब्याह के बाद इन्हीं बातों को लेके मुझे सब से अधिक परेशानी उठानी पडी !पानी संभाल के इस्तेमाल करना हमारे अपने लिए कितना ज़रूरी है ये बात मेरे परिवार को समझाना बेहद कठिन रहा!
आज जब कभी पानी की बहुत किल्लत होती है तो मै अपनी कामवाली बाई को गुसलखाने धोने से मना कर देती हूँ,जिन्हें  मै स्वयं साफ़ करती हूँ.वही बात बर्तनों की. उसे सिखाना बहुत मुश्किल की,पानी बेदर्दी से ना बहाए! खुद कर लेना अधिक आसान!
पिछले कुछ दिनों पूर्व मुझसे किसी ने कहा,"एक तुम बचत  कर लोगी तो क्या होगा?"
तो भाई  बूँद बूँद से ही तो सागर  बनता है! और क्या कहूँ? जिन लोगों को पानी की किल्लत की सब से अधिक दिक्कत उठानी पड़ती है,मै देखती हूँ,वही लोग सब से अधिक बेदर्दी से पानी बरबाद करते हैं! नलकों में पूरी ज़ोर से बहते पानी की आवाज़ मुझे ऐसी लगती है,मानो कोई मृत्यु शय्या पे  पडा हो और जीते जी उसका खून  बह रहा हो!

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

सूरज मुखी..



गुरुवार, 12 अगस्त 2010

जिस नैमत को कहते हैं आज़ादी

घर की दरों दीवारें सजतीं..कभी केसरिया रंगों में( जैसे चित्र में दिखाई दे रहा है),तो कभी हरा तो कभी सफ़ेद...या फिर इन तीनों रंगों के समन्वय से.आँगन में रंगोली..वही तीन रंगों में,वंदनवार बनता...गेंदे की पंखुड़ियां ,मोतिया के फूल और हरी पत्तीयाँ... तिरंगा भी इन्हीं से...सुबह से रेडिओ शुरू रहता..."आवाज़ दो हम एक हैं,'(रफ़ी...उनके जैसे कौमी गीत तो किसी ने गए नही),"वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हो",इस देश को रखना मेरे बच्चों संभालके","चलो झूमते सरसे बांधे कफन,लहू माँगता है ज़मीने वतन"(लता","ए मेरे वतनके लोगों",और न जाने कितने गीत कान और मन तृप्त करते रहते.
सखी सहेलियों को पहले से ताकीद रहती की,वेशभूषा तिरंगे के रंगों से मेल खाती होनी चाहिए.देश्भाक्तिपर गीतों से क्विज़  शुरू होता.तोहफे भी इन्हीं तीन रंगों में होते...किसीको हरा दुपट्टा  तो किसीको सफ़ेद कुरता!कुशन  covers टेबल mats ,आदि सब मै घर में  इन्हीं रंगसंगती  से बनाती.
"झंडा उंचा रहे हमारा",ये प्रार्थना गीत ज़रूर होता.
गांधी,जागृती, जैसी फिल्मों का टीवी पे इंतज़ार रहता.
आज तो वो गाने ना जाने कहाँ गायब हो गए? सुनाई नहीं देते!
पाँच साल पहले जब हम यहाँ रहने आए तो पूरी सोसाइटी में ७५ से अधिक निमंत्रण १० अगस्तको भेजे,१५ अगस्त पे रखे नाश्ते और कुछ खेलके.सोचा १० या १५ लोग तो आही जायेंगे! और एकभी नही आया.बस उस बार से परिवार ,सखी सहेलियाँ कुछ ऐसी बिखरी की,फिर इन दो त्योहारों के दिन,जो मेरे लिए होली ,दिवाली,ईद सबसे अधिक अहमियत रखते थे,मै मनाही नही सकी. हाँ! मिठाई बना अडोस पड़ोस में भेज देती हूँ! एक बार किसी ने पूछा"" आज क्या मौक़ा है?"
मैंने कहा,"१५ अगस्त हैना!"
वो बोली," हाँ,हाँ वो तो पता है,पर मौक़ा क्या है? जनम दिन है किसी का?"
मै:"अपनी आज़ादी का जनम दिन जो है!"
वो थोड़ी सकपका गयी.

जिस नैमत को कहते हैं आज़ादी,
 हम भूल गए उसे इतनी जल्दी?
भूल गए शहादत शहीदों की?
भूल गए क़ुरबानी  बा बापूकी?
बच्चों को कहते नही,
के संभालके रखो आज़ादी,
बड़ी मुश्किलों से ये है पाई,
क्यों करते नही इसकी क़द्रदानी?

आप सभी को आज़ादी का यह पर्व बहुत,बहुत मुबारक हो! 
पार कर दो सरहदें जो दिलों में ला रही दूरियाँ!
इंसान से इंसान तकसीम हो,खुदा ने कब चाहा?




शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

नीले तालाब का खामोश दर्पण..

बचपनकी एक यादगार जगह! हमारे खेत में तीन कुदरती तालाब थे. अब तो खैर सभी सूख गए हैं. उनमे से एक तालाब  से मुझे कुछ ख़ास ही लगाव था. दादीमाँ और माँ बगीचे में तरह तरह के फूल पौधे  लगाती रहती और मै उन्हें लगाते  हुए देखा करती. जब मुझे कोई नही देख रहा होता तो उन्हें उखाड़ के मै मेरे पसंदीदा तालाब के किनारे ले जाती. अपने खिलौनों के औज़ारों से वहाँ गड्ढे  बनाके रोप देती.मेरी तब उम्र होगी कुछ पाँच साल की.. तालाब में से पानी निकाल नियम से उन्हें डालती रहती और ये पौधे वहाँ खूब फूलते .

लेकिन क्यारियों में से पौधे जब गायब दिखते तो माँ और दादी दोनों हैरान हो जातीं! एक बार दादीमाँ  को कहते सुना," पता नही इन पौधों को चूहे उखाड़ ले जाते हैं?"( उन्हें क्या पता था की,उनके घर में एक चुहिया है जो उखाड़ ले जाती है!!)
एक बार  दादी माँ दादा से कह रही थीं ," वो जो शीशम के पेडवाला तालाब है वहाँ girenium   और hollyhocks  खूब उग रहे हैं! आपने भी देखा ना! समझ नही आता वहाँ उनकी पौध कैसे पहुँच जाती है?"
और इसी तरह बरसों बीते. उस एक शाम के बाद मै उस तालाब के किनारे बरसों तक नही गयी और बाद में वो सूख ही गया. सूख जाने से पहले वो कुछ ऐसा-सा दिखता था,जैसा की,चित्र में दिख रहा है.
सफ़ेद सिल्क पे तालाब और आसमान जल रंगों से बना लिए. फूल पौधे कढाई कर के बनाये हैं.

आईना देख,देख,
हाय रोया मेरा मन,
शीशे ने कहा पलट के,
खो गया तेरा बचपन.
पहन के बड़ी बड़ी चप्पल,
चलते थे नन्हें,नन्हें क़दम,
जब तन पे ओढ़ा करती,
माँ दादी की पैरहन..
छूटेंगी   तेरी सखियाँ,
छूटेंगी  नैहर की गलियाँ,
छूटेंगी दादी,माँ और बहन,
छूटेगा  अब ये आँगन,
न लौटेगा मस्तीभरा सावन,
छूटेंगी ये गुड़ियाँ,
जिन्हें ढूँढेंगे तेरे दो नयन,
यादोंकी गली में रह जाएगा
नीले तालाब का खामोश दर्पण,
खोयेगी बहुत कुछ,
तब मिलेंगे तुझको साजन...

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

मेरे घर रुकना ज़िंदगी...!

परिंदे  के बच्चे की आवाज़ सुन मै तुरंत गुसलखाने में घुस गयी. देखा एक बच्चा वहाँ दीवारों से बेतहाशा टकराए जा रहा था.उसकी साँसें फूल रही थीं.मैंने उसे हाथ में उठा लिया और खिड़की की कांच पे रख दिया.वहाँ से उसका घोंसला केवल आठ इंच की दूरी पे होगा. लेकिन बेचारा इतना डरा  हुआ था,की,उसकी समझ के परे था. वैसे भी वो शायद पहली बार घोंसले के बाहर निकला होगा.मैंने उसे अपनी हथेलियों पे उठा लिया.वो काँप रहा था. थकानसे उसकी आँखें मूँदी जा रही थीं और साँस फूल रही थी.कुछ पल मुझे लगा कहीँ ये दम ना तोड़ दे. घरमे ना जाने किस कारण एक पिंजडा  पडा था.मैंने परिंदे को उसमे रखा. रखने से पहले उसे दाना देनेकी,पानी पिलाने की बड़ी कोशिश की.बेचारे को अब तक तो मादा दाना खिलाती होगी.उसे कुछ समझ नही आ रहा था. मैंने अपनी  छत पे वो पिंजडा  लटका दिया.
अन्धेरा घिर रहा था.तभी देखा, परिंदे  का जोड़ा उस पिंजड़े के इर्द गिर्द मंडरा रहा था.उस बच्चे को उस समय छोड़ देना मुझे खतरे से खाली नही लगा. वैसे भी यक़ीन नही था,की,उस बच्चे को उसके माता-पिता वापस लेंगे या नही. और लेभी लें तो कैसे? छत पे बिल्लियाँ भी आती थी. मैंने पिंजड़े को अपने कमरे में रख दिया.उसमे दाना पानी तो डाला ही.कमरे की बिजली बंद कर दी.बेचारा खामोश,आँखें मूंदे बैठा रहा.
सुबह मैंने पिछली बालकनी में वो पिंजडा रखा.देखा तो वो जोड़ा वहाँ भी आया था. अब मुझे यक़ीन हो गया की,ये जोड़ा उस बच्चे को ले जाना चाह रहा है.मै उस पिंजड़े को उठा छत पे ले गयी.(आख़री तसवीर, जो उस शाम मुझे किसी आगंतुक ने अपने मोबाइल के कैमरे से खींच दी थी..तस्वीर धुंदली है.गौरसे देखा जाये तभी बच्चा उस में दिखता है..लग रहा था,की,काश मेरा अपना कैमरा इस वक़्त मेरे पास होता..कोई ले गया था.)
छत पे  लगे एक हुक में मैंने पिंजडा लटका दिया और उसका दरवाज़ा खोल दिया.बच्चे को अपनी माता पिता की आवाजें सुनायी दे रही थीं.वो पिंजड़े  में काफ़ी देर टकराता रहा.अंत में अचानक  खुले दरवाजेसे धम करके फर्श पे जा गिरा.मैंने दिल थाम लिया...! उसे वहाँ देखते ही मादा मेरे वहाँ रखे एक बोन्साय के पौधे के डाल पे जा बैठी. बच्चा उड़ के  उस के पास जा बैठा. मै निहाल हो गयी..(तस्वीर में वो डाल नज़र आ रही है.)
चिड़िया वहाँ से तुरंत उडी और छत की रेलिंग पे जा बैठी.( डाल के ठीक बीछ से वो रेलिंग नज़र आ रही है और वहाँ से बाहर की ओर से वो घोसला भी.) बच्चा अपनी माँ के पीछे उड़ के रेलिंग पे जा बैठा..आह! यहाँ से घोंसला दूर था और मादा उड़ के घोंसले के बाहर जा बैठी...मै डर गयी,की,कहीँ बच्चा नीचे ना जा गिरे.सातवें माले से सीधा नीचे गिर सकता था....लेकिन मादा बेहतर जानती थी... बच्चा उडा और मादा के पीछे खिड़की पे बैठा और बाद में घोंसले के अन्दर....! उसके पीछे नर भी अन्दर घुस गया.मेरी आँखों से अबतक बेसाख्ता आँसूं बहे जा रहे थे! क्या नज़ारा मुझे क़ुदरत ने दिखाया था! गर यही विडिओ ग्राफ होता तो कितनी यादगार फिल्म बन जाती! 
इस माह उस जोड़े ने तीसरी बार वहाँ अंडे दिए  और बच्चे निकाले..हर बार अंडे देने से पूर्व वो चिड़िया नए तिनके लाती है और पुराने तिनके गुसलखाने में गिरा देती है.( वन बेडरूम अपार्टमेन्ट का रेनोवेशन होता रहता है !!)गर उस चिड़िया को मै शुक्रिया कह सकती तो ना जाने कितनी बार कहती...मुझपे विश्वास करने के लिए..बार,बार अपना घरौंदा  बनाने के लिए..के उसे वहाँ इतना महफूज़  लग रहा था..अब एक और किसी अन्य परिंदे का जोड़ा घुसलखाने के अन्दर लगे पंखे पे अपना घोंसला बनाने की कोशिश में है! वो तिनका तो गुसलखाने  की खिड़की से लाती  है,लेकिन वापस उड़ ने के लिए उसे कमरे की खिड़की से जाना होता है!

 

रविवार, 1 अगस्त 2010

हिमशिखा.

कुछ साल पहले की बात है. हमलोग ,बहन और उस के बच्चों के साथ हिमालय में घूमने गए. बहन को हिमाच्छादित पर्वत  राशियाँ देखने का बेहद मन था. इससे पहले हम जब रानीखेत आए थे,तो वहाँ बने वन विभाग के विश्राम गृह से कैलाश पर्वत का त्रिशूल सूर्योदय के समय देखा था. क़ुदरत का वो अनुपम  नज़ारा मेरी निगाहों में बस गया था. अफ़सोस, के इस बार जब हम गए तो  वहाँ के गड़रियों  द्वारा वनों में लगाई जानेवाली आग के कारण फिजाओं में धुंआ ही धुंआ था.  लगातार चौथे दिन भी निराशा ही हाथ लगी. एक रात मैंने सपना देखा. ख़्वाबों से मंज़र...बहके नज़ारे..सिहरन पैदा करती सबा...हीरों -सी चमकती,हिमाच्छादित पर्वत राशी...उस पे उतरा पूनम  का चाँद...मानो हाथों से उसे छुआ जा सके...आँखें खुली तो कुछ पल यक़ीन ना हुआ की वो एक सपना था...हिमपर्वत तो दिखे नही,गरमी ने अलग परेशान किया! विश्राम गृह में तो पंखा तक नही था...! ये क़ुदरत के साथ कैसा खिलवाड़ था...??
उसी सपने को याद कर मैंने एक भित्ती चित्र बनाया...सिल्क के कपडे पे नीले,हलके गुलाबी और सफ़ेद जल रंगों से पार्श्वभूमी बना ली.रुपहले कपडेमे से चाँद काटा  और सिल लिया...ऊपर से धुंद  दिखाने  के लिए chiffon लगा दिया.. पेड़ कढाई से बना लिए.  बर्फ के लिए packing से मिली सिंथेटिक रुई   टांक दी.अब के रचना पहले लिखी गयी थी...क्योंकि सपना याद आ रहा था..तसवीर साफ़ नही आयी है...क्षमा चाहती हूँ.

रानी-सी रात ने ओढी,
चाँद टंकी,चुनर श्यामली,
हिमशिखा पे उतर आयी,
चांदी-सी चमकती शुभ्र चांदनी,
सजी फिज़ाएँ,लजीली दुल्हन-सी,
मुबारक हो!क़ुदरत बलाएँ  लेने लगी..