बुधवार, 28 अप्रैल 2010

यादों की फुलवारी में

सिल्क के टुकड़े पे water कलर से पार्श्वभूमी बना ली...बाद में कढाई..


तितली बन,अल्हड़पन,

चुपके से उड़ आता है,

यादों की फुलवारी में,

डाल,डाल पे,फूल,फूल पे,

झूम,झूम मंडराता है...


वो ठंडी,ठंडी बादे सबा,

 आँगन में  उतरी शामें ,

पौधों के पीछे छुपना,

आँखमिचौली रचना ...

 

वो शामों का गहराना,

 फिर माँ का बुलाना,

किस  दिन रचा आखरी खेला 

कुछ याद तुम्हें भी होगा?


हाथ पकड़ मेलों में घूमना,

है याद तुम्हें वो आखरी मेला?

छोड़ा हाथ फिर ना पकड़ा?

क्यों फिर ना पकड़ा?

प्यारा अल्हड़पन छोड़ा?



रविवार, 25 अप्रैल 2010

इन पहाड़ों से....

.रेशमके कपडेपे water कलर, उसके ऊपर धुंद दिखानेके लिए शिफोनका एक layer ....कुछ अन्य रंगों के तुकडे, ज़मीन, पहाड़, घान्सफूस, दिखलाते है...इन कपडों पे कढाई की गयी है...
इन  पहाड़ों से ,श्यामली  घटाएँ,
जब,जब गुफ्तगू करती हैं,  
धरती पे  हरियाली छाती है,
हम आँखें मूँद लेते हैं..
हम आँखें मूँद लेते हैं...
उफ़! कितना सताते हैं,
जब याद आते है,
वो दिन कुछ भूले,भूले-से,
ज़हन में छाते जाते हैं,
ज़हन में छाते जाते हैं...

जब बदरी के तुकडे मंडरा के,
ऊपर के कमरे में आते हैं,
हम सीढ़ियों पे दौड़ जाते है,
और झरोखे बंद करते हैं,
 झरोखे  बंद करते हैं,

आप जब सपनों में आते हैं,
भर के बाहों में,माथा चूम लेते हैं,
उस मीठे-से अहसास से,
पलकें उठा,हम जाग जाते हैं,
हम जाग जाते हैं,

बून्दनिया छत पे ताल धरती हैं,
छम,छम,रुनझुन गीत गाती हैं,
पहाडी झरने गिरते बहते  हैं,
हम सर अपना तकिये में छुपाते हैं,
सर अपना तकिये में छुपाते हैं..

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

दूर अकेली चली......

दूर अकेली जाये...

कपडेके चंद टुकड़े, कुछ कढाई, कुछ डोरियाँ, और कुछ water कलर...इनसे यह भित्ति चित्र बनाया था...कुछेक साल पूर्व..


वो राह,वो सहेली...
पीछे छूट चली,
दूर  अकेली  चली  
गुफ्तगू, वो ठिठोली,
पीछे छूट चली...

किसी मोड़ पर  मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली...

धुआँ पहेन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
जब बनी ज़िंदगी पहेली
वो राह ,वो सहेली...
ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...


सोमवार, 12 अप्रैल 2010

वो वक़्त भी कैसा था.....

कुछ  रंगीन  कपडे  के  टुकड़े ,कुछ  धागे , और  कल्पना  के  रंग ...इन के मेलजोल से मैंने  बनाया है यह भित्ति चित्र...जब कभी देखती हूँ,अपना गाँव याद आ जाता है..



वो वक़्त भी कैसा था,
सुबह का सुनहरा आसमाँ,
हमेशा अपना लगता था!

तेरा हाथ हाथों में रहता,
शाम का रेशमी गुलाबी साया,
कितना पास लगता था !

रंगीन रूई से टुकड़ों में चेहरा,
खोजना  एक दूजे का,
बेहद अच्छा लगता था !

आज भी सुबह आसमाँ सुनहरा,
कुछ,कुछ रंगीन होता होगा,
जिसे अकेले देखा नही जाता....

शाम का सुरमई गुलाबी साया,
लगता है कितना सूना,सूना!
रातें गुज़रती हैं,तनहा,तनहा...




मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

2 क्षणिकाएँ

 

१)संगदिल सनम

पहले   तो  सनम  ने हमें  आँसू  बना आँखों   में  बसाया  ,
बेदर्द , संगदिल  निकला ,  आँसू  को  संगपे  गिरा  दिया !


२ ) निशाने ज़ख्म

रहने दो ये ज़ख्मों  निशाँ,
क्यों चाहो इन्हें मिटाना ?
ये सौगाते तुम्हारी हैं,
सिमटी -सी यादें तुम्हारी हैं,
सब तो छीन लिया,
छोडो, जो  दिल में हमारी हैं !