बुधवार, 31 मार्च 2010

एक राह अकेली-सी

एक राह अकेली-सी.....

आसमान नीले रंगका सिल्क। रास्ता बना है हाथ कारघेसे बने सिल्क के पुराने दुपट्टेके तुकडेमे से........जिसपे मैंने तर्खानी होते समय, लकडी का भूसा जमा कर लिया और उपरसे चिपका दिया....आगेकी और जो घांस आदि दिख रहा है, वो पहले तो एक छापा हुआ कपड़े का टुकडा है...उपरसे, कुछ पेंट और कुछ कढाई....पेड़ पूरी तरहसे कढाई करके बनाया है...  ये चित्र मैंने एक यादगार तसवीर परसे बनाया गया है....









बुधवार, 24 मार्च 2010

मत काटो इन्हें !!

मत काटो इन्हें, मत चलाओ कुल्हाडी

कितने बेरहम हो, कर सकते हो कुछभी?

इसलिए कि ,ये चींख सकते नही?



ज़माने हुए,मै इनकी गोदीमे खेलती थी,

ये टहनियाँ मुझे लेके झूमती थीं,

कभी दुलारतीं, कभी चूमा करतीं,



मेरे खातिर कभी फूल बरसातीं,

तो कभी ढेरों फल देतीं,

कड़ी धूपमे घनी छाँव इन्हीने दी,



सोया करते इनके साये तले तुमभी,

सब भूल गए, ये कैसी खुदगर्जी?

कुदरत से खेलते हो, सोचते हो अपनीही....



सज़ा-ये-मौत,तुम्हें तो चाहिए मिलनी

अन्य सज़ा कोईभी,नही है काफी,

और किसी काबिल हो नही...



अए, दरिन्दे! करनेवाले धराशायी,इन्हें,

तू तो मिट ही जायेगा,मिटनेसे पहले,

याद रखना, बेहद पछतायेगा.....!



आनेवाली नस्ल्के बारेमे कभी सोचा,

कि उन्हें इन सबसे महरूम कर जायेगा?

मृत्युशय्यापे खुदको, कड़ी धूपमे पायेगा!!

शनिवार, 20 मार्च 2010

मर गया बेचारा!


कई बार यह दुविधा रहती है,कि , जिस भाषाकी वजह से मज़ेदार अनुभव आए/हुए, वह भाषा भी पाठकों को आनी चाहिए...तभी तो प्रसंग का लुत्फ़ उठा सकते हैं / सकेंगे...बड़ा सोचा, लेकिन अंत मे इसी प्रसंग पे आके अटक गयी...खैर...! अब बता ही देती हूँ...

छुट्टी का दिन और दोपहर का समय था। मै मेज़ पे खाना लगा रही थी...एक फोन बजा...मैंने बात की...फिर अपने काम मे लग गयी...

कुछ समय बाद जब मेरे पती खाना खाने बैठे,तो मुझसे पूछा,
" कौन मर गया?"
मै :" मर गया? कौन ? किसने कहा?"

पती: " तुमने ! तुमने कहा..."

मै : " मैंने कब कहा? मुझे तो कुछ ख़बर नही !! क्या कह रहे हो....!"

पती: " कमाल तुम्हारी भी...कहती हो और भूल जाती हो...!"

मै :" कब, किसे कहा, इतना तो बताओ...!"

पती: " मुझे क्या पता किससे कहा..मैंने तो कहते सुना..."

मै :" लेकिन कब? कब सुना...? इतना तो बता दो...! मै तो कल शाम से किसी को मिली भी नही..और ये बात तो मेरे मुँह से निकली ही नही .... "
मै परेशान हुए जा रही थी...ये पतिदेव ने क्या सुन लिया...जो मैंने कहाही नही....!!!

पती:" अभी, अभी, खाना लगाते समय तुम किसीको कह रही थी कि, कोई मर गया...किसका फोन था?"
मै :" फोन तो मेरी एक सहेली का था...शोभना का...लेकिन उससे मैंने ऐसा तो कुछ नही कहा...वो तो मुझसे नासिक जाने की तारीख पूछ रही थी...बस इतनाही...मरने वरने की कहाँ बात हुई...मुझे समझ मे नही आ रहा...???"

बस तभी समझ मे आ गया...मै ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी...

मै : उफ्फो...!! मै उसे तारीख बता रही थी..मेरे नासिक जानेकी..मराठी मे कहा,' एक मेला...'..."

इसका अगला पिछ्ला सन्दर्भ पता न हो तो वाक़ई, मराठी समझने वाला, लेकिन जिसकी मूल भाषा हिन्दी हो , यही समझ सकता है जो इन्हों ने समझा.."एक मेला" इस आधे अधूरे वाक्य का मतलब होता है," एक मर गया"...मेला=मर गया...
मुझे शोभना ने पूछा: "( मराठीमे) तुम नासिक कब आ रही हो?"
मेरा जवाब था: " एक मेला... "....मतलब, मई माह की एक तारिख को...एक मई को.... पती ने वो सन्दर्भ सुनाही नही था...जब शोभना ने मुझसे फिरसे पूछा:" पक्का है ना?"( मराठीमे =नक्की ना...एक मेला?")
जवाब मे मैंने कहा था : " हाँ पक्का...( नक्की...)' एक मेला', ...(एक मई को...)।

मै शोभना को बार, बार 'एक मेला' कहके यक़ीन दिला रही थी...और वो यक़ीनन जानना चाह रही थी, क्योंकि, मुझे एक वर्क शॉप लेना था!! नासिकमे...तथा उस मुतल्लक़ अन्य लोगों को इत्तेला देनी थी...जो काम शोभना को सौंपा गया था...!!!!

इतनी बार जब मैंने उसे" एक मेला' कह यक़ीन दिलाया, तो मेरे पतिदेव को यक़ीन हो गया कि,कोई एक मर गया ....और मै नकारे चली जा रही थी...जितना नकार रही थी, इनका गुस्सा बढ़ता जा रहा था...!

मंगलवार, 16 मार्च 2010

शहीद तेरे नाम से...

बरसों पुरानी बात बताने जा रही हूँ...जिस दिन भगत सिंह शहीद हुए,उस दिन का एक संस्मरण...

सुबह्का समय ...मेरे दादा-दादी का खेत औरंगाबाद जानेवाले हाईवे को सटके था...दादा दादी अपने बरामदे में शक्ल पे उदासी, ज़ुबाँ पे मौन लिए बैठे हुए थे...

देखा, लकडी के फाटक से गुज़रते हुए, अग्रेज़ी लश्कर के दो अफसर अन्दर की ओर बढे। कई बार यह हो चुका था कि, उन्हें गिरफ्तार करने अँगरेज़ चले आते। दादा जी ने अगवानी की। उन्हें बरामदे में बैठाते हुए, आनेकी वजह पूछी।

जवाब मिला: " हम हमारी एक तुकडी के साथ, अहमदनगर की ओर मार्च कर रहे हैं...सड़क पे आपके फार्म का तखता देखा। लगा, यहाँ शायद कुछ खाने/पीने को मिल जाय..पूरी battalion भूखी है.....क्या यहाँ कुछ खाने पीने का इंतेज़ाम हो सकता है?"

दादा: " हाँ...मेरे पास केलेके बागात हैं, अन्य कुछ फलभी हैं...अपनी सेना को बुला लें...हम से जो बन पायेगा हम करेंगे...."

एक अफसर उठ के सेना को बुलाने गया। एक वहीँ बैठा। दादी ने उन्हें खानेकी मेज़ पे आने के लिए इल्तिजा की। मुर्गियाँ हुआ करती थीं...अंडे भी बनाये गए...

कुछ ही देर में दूसरा अफसर भी आ पहुँचा....दादा ने सेना के लिए फलों की टोकरियाँ भिजवाई....वो सब वहीँ आँगन में बैठ गए।

नाश्तेका समय तो होही रहा था। दादा दादी ने उन दो अफसरों को परोसा और खानेका इसरार किया। दादी, लकडी के चूल्हे पे ब्रेड भी बनाया करतीं...कई क़िस्म के मुरब्बे घर में हमेशा रहते...इतना सारा इंतेज़ाम देख अफसर बड़े ही हैरान और खुश हुए.....
उन में से एक ने कहा :" आपलोग भी तो लें कुछ हमारे साथ...समय भी नाश्ते का है...आप दोनों कुछ उदास तथा परेशान लग रहे हैं..."

दादी बोलीं: " आज हमें माफ़ करें। हमलोग आज दिन भर खाना नही खानेवालें हैं..."
अफसर, दोनों एकसाथ :" खाना नही खानेवालें हैं? लेकिन क्यों? हमारे लिया तो आपने इतना कुछ बना दिया...आप क्यों नही खानेवालें ???"
दादा:" आज भगत सिंह की शहादत का दिन है...चाहता तो बच निकलता..लेकिन जब सजाए मौत किसी और को मिल रही यह देखा तो सामने आ गया...क्या गज़ब जाँबाज़ , दिलेर नौजवान है....हम दोनों पती पत्नी शांती के मार्ग का अनुसरण करते हैं, लेकिन इस युवक को शत शत नमन...अपने बदले किसी औरको मरने नही दिया..आज सच्चाई की जीत हुई है....मरी है तो वो कायरता...सच्चाई ज़िंदा है...जबतक भगत सिंह नाम रहेगा, सच्चाई और बहादुरी का नारा लगेगा...!"

कहते ,कहते, दादा-दादी, दोनों के आँसू निकल पड़े...

दादी ने कहा: " उस माँ को कितना फ़क़्र होगा अपने लाल पे....कि उसकी कोख से ऐसा बेटा पैदा हुआ...वो कोख भी अमर हो गयी...उस बेटे के साथ,साथ..."

दोनों अफ़सर उठ खड़े हो गए। भगत सिंह इस नाम को सलाम किया...और उस दिन कुछ ना खाने का प्रण किया...बाक़ी लश्कर के जवान तबतक खा पी चुके थे...घरसे बिदा होने से पूर्व उन्हों ने हस्तांदोलन के लिए हाथ बढाये....तो दादा बोले:
"आज हस्तांदोलन नही..आज जयहिंद कहेंगे हम...और चाहूँगा,कि, साथ, साथ आप भी वही जवाब दें..."
दोनों अफसरों ने बुलंद आवाज़ में," जयहिंद" कहा। फिर एकबार शीश नमाके , बिना कुछ खाए वहाँ से चल दिए...पर निकलने से पहले कहा,
" आप जैसे लोगों का जज़्बा देख हम उसे भी सलाम करते हैं...जिस दिन ये देश आज़ाद होगा, हम उस दिन आप दोनों को बधाई देने ज़रूर पहुँचेंगे...गर इस देश में तब तक रहे तो..."

और हक़ीक़त यह कि, उन में से एक अफ़सर , १६ अगस्त के दिन बधाई देने हाज़िर हुआ। दादा ने तथा दादी ने तब कहा था," हमें व्यक्तिगत किसी से चिढ नही...संताप नही...लेकिन हमारा जैसा भी टूटा फूटा झोंपडा हो...पर हो हमारा...कोई गैर दस्त अंदाज़ ना रहे ...हम हमारी गरीबी पे भी नाज़ करके जी लेंगे...जिस क़ौम ने इसे लूटा, उसकी गुलामी तो कभी बर्दाश्त नही होगी...."

ऐसी शहादतों को मेरा शत शत नमन....

रविवार, 14 मार्च 2010

अए अजनबी...


अए अजनबी !जब हम मिले,
तुम जाने पहचाने -से थे,
बरसों हमने साथ गुज़ारे,
क्यों बन गए पराये?
क्या हुआ, किस बातपे,
हम तुम नाराज़ हुए?
आओ एक बार फिर मिलें,
अजनबियत दिल में लिए...

मंगलवार, 9 मार्च 2010

मेरे घरमे भूत है..

"मेरे घरमे भूत है," ये अल्फाज़ मेरे कानपे टकराए...! बोल रही थी मेरी कामवाली बाई...शादीका घर था...कुछ दिनों के लिए मेरे पडोसन की बर्तनवाली,मेरे घर काम कर जाती...मेरी अपनी बाई, जेनी, कुछ ही महीनों से मेरे यहाँ कामपे लगी थी...उसी पड़ोस वाली महिला से बतिया रही थी......
एक बेटीकी माँ, लेकिन विधवा हो गयी थी। ससुराल गोआमे था..मायका कर्नाटक मे...एक बेहेन गोआमे रहती थी...इसलिए अपनी बेटीको पढ़ाई के लिए गोआ मे ही छोड़ रखा था...

मै रसोईको लगी बालकनी मे कपड़े सुखा रही थी...ये अल्फाज़ सुने तो मै, हैरान होके, रसोई मे आ गयी...और जेनी से पूछा," क्या बात करती है तू? तूने देखा है क्या?"

"हाँ फिर!" उसने जवाब मे कहा...

"कहाँ देखा है?" मैंने औरभी चकरा के पूछा !

"अरे बाबा, पेडपे लटकता है..!"जेनी ने हाथ हिला, हिला के मुझे बताया...!

"पेडपे? तूने देखा है या औरभी किसीने?"मै।

जेनी :" अरे बाबा सबको दिखता है...सबके घर लटकता है...! पर तू मेरेको ऐसा कायको देखती? तू कभी गयी है क्या गोआ?"

जेनी हर किसीको "तू" संबोधन ही लगाया करती..."आप" जैसा संबोधन उसके शब्दकोशमे तबतक मौजूद ही नही था.....!
मै:" हाँ, मै जा चुकी हूँ गोआ....लेकिन मुझे तो किसीने नही बताया!"

जेनी :" तो उसमे क्या बतानेका? सबको दिखता है...ऐसा लटका रहता है...." अबतक, मेरे सवालालों की बौछार से जेनी भी कुछ परेशान-सी हो गयी थी..

मै:" किस समय लटकता है? रातमे? और तुझे डर नही लगता ?" मेरी हैरानी कम नही हुई थी...वैसे इतनी डरपोक जेनी, लेकिन भूत के बारेमे बड़े इत्मीनान से बात कर रही थी..जैसे इसका कोई क़रीबी सबंधी, रिश्तेदार हो!

"अरे बाबा...! दिन रात लटकता रहता है...पर तू मेरे को ऐसा क्यों देख रही है? और क्यों पूछ रही है...?ये इससे क्या क्या डरने का ....?" कहते हुए उसने अपने हाथ के इशारे से, हमारे समंदर किनारेके घरसे आए, नारियल के बड़े-से गुच्छे की और निर्देश किया!
जेनी:"मै बोलती, ये मेरे घरमे भूत है...और तू पूछती, इससे डरती क्या??? तू मेरेको पागल बना देगी बाबा..."

अब बात मेरी समझमे आयी.....! जेनी "बहुत" का उच्चारण "भूत" कर रही थी !!!

उन्हीं दिनों मेरी जेठानी जी भी आयी हुई थीं..और ख़ास उत्तर की संस्कृति....! उन्हें जेनी का "तू" संबोधन क़तई अच्छा नही लगता था....!देहली मे ये सब बातें बेहद मायने रखतीं हैं...!
एक दिन खानेके मेज़पे बैठे, बैठे, बड़ी भाभी, जेनी को समझाने लगीं....किसे, किस तरह संबोधित करना चाहिए...बात करनेका सलीका कैसा होना चाहिए..बड़ों को आदरवाचक संबोधन से ही संबोधित करना चाहिए...आदि, आदि...मै चुपचाप सुन रही थी...जेनी ने पूरी बात सुनके जवाबमे कहा," अच्छा...अबी से ( वो 'भ"का भी उच्चारण सही नही कर पाती थी) , मै तेरे को "आप" बोलेगी.."

भाभी ने हँसते, हँसते सर पीट लिया....!
जेठजी, जो अपनी पत्नीकी बातें खामोशीसे सुन रहे थे,बोल उठे," लो, और सिखाओ...! क्या तुमभी...१० दिनों के लिए आयी हो, और उसे दुनियाँ भर की तेहज़ीब सिखाने चली हो!!!!"

शनिवार, 6 मार्च 2010

रुत बदल दे !

पार कर दे हर सरहद जो दिलों में ला रही दूरियाँ ,
इन्सानसे इंसान तक़सीम हो ,खुदाने कब चाहा ?
लौट के आयेंगी बहारें ,जायेगी ये खिज़ा,
रुत बदल के देख, गर, चाहती है फूलना!
मुश्किल है बड़ा,नही काम ये आसाँ,
दूर सही,जानिबे मंजिल, क़दम तो बढ़ा!


बुधवार, 3 मार्च 2010

बोले तू कौनसी बोली ?

कुछ अरसा हुआ इस बात को...पूरानें मित्र परिवार के घर भोजन के लिए गए थे। उनके यहाँ पोहोंचते ही हमारा परिचय, वहाँ, पहले से ही मौजूद एक जोड़े से कराया गया। उसमे जो पती महोदय थे, मुझ से बोले,

"पहचाना मुझे?"



मै: "माफ़ी चाहती हूँ...लेकिन नही पहचाना...! क्या हम मिल चुके हैं पहले? अब जब आप पूछ रहें है, तो लग रहा है, कि, कहीँ आप माणिक बाई के रिश्तेदार तो नही? उनके मायके के तरफ़ से तो यही नाम था...हो सकता है, जब अपनी पढाई के दौरान एक साल मै उनके साथ रही थी, तब हम मिले हों...!"



स्वर्गीय माणिक बाई पटवर्धन, रावसाहेब पटवर्धन की पत्नी। रावसाहेब तथा उनके छोटे भाई, श्री. अच्युत राव पटवर्धन, आज़ादी की जंग के दौरान, राम लक्ष्मण की जोड़ी कहलाया करते थे। ख़ुद रावसाहेब पटवर्धन, अहमदनगर के 'गांधी' कहलाते थे...उनका परिवार मूलत: अहमदनगर का था...इस परिवार से हमारे परिवार का परिचय, मेरे दादा-दादी के ज़मानेसे चला आ रहा था। दोनों परिवार आज़ादी की लड़ाई मे शामिल थे....



मै जब पुणे मे महाविद्यालयीन पढाई के लिए रहने आयी,तो स्वर्गीय रावसाहेब पटवर्धन, मेरे स्थानीय gaurdian थे।

जिस साल मैंने दाखिला लिया, उसी साल उनकी मृत्यू हो गयी, जो मुझे हिला के रख गयी। अगले साल हॉस्टल मे प्रवेश लेने से पूर्व, माणिक बाई ने मेरे परिवार से पूछा,कि, क्या, वे लोग मुझे छात्रावास के बदले उनके घर रख सकते हैं? अपने पती की मृत्यू के पश्च्यात वो काफ़ी अकेली पड़ गयीं थीं...उनकी कोई औलाद नही थी। मेरा महाविद्यालय,उनके घरसे पैदल, ५ मिनटों का रास्ता था।



मेरे परिवार को क़तई ऐतराज़ नही था। इसतरह, मै और अन्य दो सहेलियाँ, उनके घर, PG की हैसियत से रहने लगीं। माणिक बाई का मायका पुणे मे हुआ करता था...भाई का घर तो एकदम क़रीब था।

उस शाम, हमारे जो मेज़बान थे , वो रावसाहेब के परिवार से नाता रखते थे/हैं....यजमान, स्वर्गीय रावसाहेब के छोटे भाई के सुपुत्र हैं...जिन्हें मै अपने बचपनसे जानती थी।



अस्तु ! इस पार्श्व भूमी के तहत, मैंने उस मेहमान से अपना सवाल कर डाला...!



उत्तर मे वो बोले:" बिल्कुल सही कहा...मै माणिक बाई के भाई का बेटा हूँ...!"



मै: "ओह...! तो आप वही तो नही , जिनके साथ भोजन करते समय हम तीनो सहेलियाँ, किसी बात पे हँसती जा रहीँ थीं...और बाद मे माणिक बाई से खूब डांट भी पड़ी थी...हमारी बद तमीज़ी को लेके..हम आपके ऊपर हँस रहीँ हो, ऐसा आभास हो रहा था...जबकि, ऐसा नही था..बात कुछ औरही थी...! आप अपनी मेडिसिन की पढाई कर रहे थे तब...!"



जवाब मे वो बोले: " बिल्कुल सही...! मुझे याद है...!"



मै: " लेकिन मै हैरान हूँ,कि, आपने इतने सालों बाद मुझे पहचाना...!२० साल से अधिक हो गए...!"



उत्तर:" अजी...आप को कैसे भूलता...! उस दोपहर भोजन करते समय, मुझे लग रहा था,कि, मेरे मुँह पे ज़रूर कुछ काला लगा है...जो आप तीनो इस तरह से हँस रही थी...!"



खैर ! हम लोग जम के बतियाने लगे....भाषा के असमंजस पे होने वाली मज़ेदार घटनायों का विषय चला तो ये जनाब ,जो अब मशहूर अस्थी विशेषग्य बन गए थे, अपनी चंद यादगारें बताने लगे...



डॉक्टर: " मै नर्सिंग कॉलेज मे पढाता था, तब की एक घटना सुनाता हूँ...एक बार, एक विद्यार्थिनी की नोट्स चेक कर रहा था..और येभी कहूँ,कि, ये विद्यार्थी, अंग्रेज़ी शब्दों को देवनागरी मे लिख लेते थे..नोट्स मे एक शब्द पढा,' टंगड़ी प्रेसर'...मेरे समझ मे ना आए,कि, ये टांग दबाने का कौन-सा यंत्र है,जिसके बारे मे मुझे नही पता...! कौतुहल इतना हुआ,कि, एक नर्स को बुला के मैंने पूछ ही लिया..उसने क़रीब आके नोट्स देखीं, तो बोली, 'सर, ये शब्द 'टंगड़ी प्रेसर' ऐसा नही है..ये है,'टंग डिप्रेसर !' "



आप समझ ही गए होंगे...ये क्या बला होती है...! रोगी का, ख़ास कर बच्चों का गला तपास ते समय, उनका मुँह ठीक से खुलवाना ज़रूरी होता है..पुराने ज़माने मे तो डॉक्टर, गर घर पे रोगी को देखने आते,तो, केवल एक चम्मच का इस्तेमाल किया करते..!



हमलोगों का हँस, हँस के बुरा हाल हुआ...और उसके बाद तो कई ऐसी मज़ेदार यादेँ उभरी...शाम कब गुज़र गयी, पता भी न चला..!