शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

दीवारें बोलती नही..

क्षमा प्रार्थी हूँ,की, एक पुरानी रचना पेश कर रही हूँ....!


खादी सिल्क से दीवारें तथा रास्ता बनाया है..क्रोशिये की बेलें हैं..और हाथसे काढ़े हैं कुछ फूल-पौधे..बगीचे मे रखा statue plaster ऑफ़ Paris से बनाया हुआ है..

 सुना ,दीवारों  के  होते  हैं  कान ,
काश  होती  आँखें और लब!
मै इनसे गुफ्तगू   करती,
खामोशियाँ गूंजती हैं इतनी,
किससे बोलूँ? कोई है ही  नही..

आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं  मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...

सजी बगिया को ,रहता है  फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर  कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...


मंगलवार, 4 जनवरी 2011

दूर रेह्केभी ......


दूर रेह्केभी क्यों
इतने पास रहते हैं वो?
हम उनके कोई नही,
क्यों हमारे सबकुछ,
लगते  हैं वो?
सर आँखोंपे चढाया,
अब क्यों अनजान,
हमसे बनतें हैं वो?

वो अदा थी या,
है ये अलग अंदाज़?
क्यों हमारी हर अदा,
नज़रंदाज़ करते हैं वो?
घर छोडा,शहर  छोडा,
बेघर हुए, परदेस गए,
और क्या, क्या, करें,
वोही कहें,इतना क्यों,
पीछा करतें हैं वो?

खुली आँखोंसे नज़र
कभी आते नही वो!
मूंदतेही अपनी पलकें,
सामने आते हैं वो!
इस कदर क्यों सताते हैं वो?
कभी दिनमे ख्वाब दिखलाये,
अब क्योंकर कैसे,
नींदें भी हराम करते हैं वो?

जब हरेक शब हमारी ,
आँखोंमे गुज़रती हो,
वोही बताएँ हिकमत हमसे,
क्योंकर सपनों में आयेंगे वो?
सुना है, अपने ख्वाबों में,
हर शब मुस्कुरातें हैं वो,
कौन है,हमें बताओ तो,
उनके ख्वाबोंमे आती जो?
दूर रेह्केभी क्यों,
हरवक्त पास रहते  हैं वो?