पँछी तो कढाई से बना है. पत्तों के लिए सिल्क हरे रंग की छटाओं में रंग दिया और आकार काट के सिल दिए. घोंसला बना है,डोरियों,क्रोशिये और धागों से. पार्श्व भूमी है नीले रंग के, हाथ करघे पे बुने, रेशम की.
चल उड़ जा ओ परिंदे!
तू नीड़ नया बना ले रे ,
न आयेगा अब लौट के,
इक बार जो फैले पंख रे,
जहाँ तूने खोली आँखें,
जहाँ तूने निगले दाने रे !
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24 टिप्पणियां:
बहुत खूबसूरत....कढाई भी और पंक्तियाँ भी
aapkee kala kshamata ko naman...........
ati sunder
aapki karigari aur kavita dono hi achhi hai ........
क्षमा जी बहुत सुन्दर नीड बना है और कविता भी अच्छी लगी। आपके हुनर को सलाम। शुभकामनायें
अति सुंदरः चल उड़ जा रे पंछी नहीं... जैसे उड़ि जहाज को पंछी पुनि जहाज पर आवे!!
वाह जितनी सुन्दर कलाकृति, उतनी ही सुन्दर कविता.
sundar
मुनव्वर राना साहब का शेर याद आ गयाः
ये चिड़िया भी मेरी बेटीसे कितनी मिलती जुलती है
जहाँ भी शाख़े गुल देखा, कि झूला डाल देती है.
एही से कहते हैं कि चल उड़ जा रे परिंदे मत बोलिए, नहीं त आपसे सवाल पूछेगा परिंदा कि हम तो बाबुल तोरे अंगना की चिड़िया...
मनमोहक कला, अऊर सुंदर कबिता...
nice
...बेहतरीन!!!
सृजनशीलता का दुहरा आनंद -हस्तकला और काव्यकला दोनों ही उत्कृष्ट !
हाँ पक्षी परभृत होते हैं बोले तो पूरे कृतघ्न ..कैसे छोड़ कर चल देते हैं न अपने पैत्रिक बसेरे को ....आह !!
drarvind3@gmail.com
kalakaar ki kala ko dekh kar aur padh kar dono tarah se anubhav kiya........:)
badhai!!
आपके बनाये हुये चित्र/कृति बहुत सुन्दर होते हैं..
waah!!.......behtreen klaakari ...........aur rachna ......dono hi lajwaab
रचना और कढ़ाई दोनो ही लाजवाब हैं ...
ye char lines hi aapke bhavuk man ke need ka pata deti hai.
sunder kadhayi.
इतनी सुन्दर कलाकृति...बस एक शब्द है...बेमिसाल...बहुत बहुत ख़ूबसूरत
और उस पर रची पंक्तियाँ भी बेहद ख़ूबसूरत हैं..
मेरे दूसरे ब्लॉग का लिंक है
www.rashmiravija.blogspot.com
बहुत सुंदर कढाई और प्यारी सी कविता । पंख फैलाकर बच्चे तो उड ही जाते हैं जहां पंखों में ताकद आई ।
कभी कभी बड़ी मुश्किल में फंस जाना होता है. यह भी ऐसा ही समय है. आप कढ़ाई, बुनाई, सिलाई, चित्रकारी, सजावट आदि की माहिर हैं. बागबानी और किचेन गार्डेन के साथ पाक कला में भी सिद्धहस्त. मैं कई मिनट तक तो आपकी कला में ही खो गया. क्या घोंसला है, क्या पक्षी है! वाह, उस पर सोने पे सुहागे का काम करती कविता. इतनी मेहनत. मैं तारीफ़ भी करूं तो किस किस की.
१५-१६ दिन शहर ही नहीं, नेट से भी दूर रहा, आपकी मेल क्या, किसी के सिस्टम पर भी अपना कुछ देखने का मोह नहीं रखा. क्षमा चाहूँगा.
Hello,
Both are a beautiful piece of art!! :)
"जहाँ तूने खोली आँखें,
जहाँ तूने निगले दाने रे !"
... Very nice!
Regards,
Dimple
कुदरत ने कमाल का हुनर बख्शा है आपको.
this is very good!!
पंक्तियाँ तो सुन्दर हैं ही ... पर कढाई भी अति सुन्दर है ....
बहुत सुन्दर...आपके ब्लॉग पे मैं हर ५-६ दिन पे आता हूँ...बहुत कुछ नया मिलता है...इत्मिनान से पढ़ने का दिल करता है इसलिए लेट से आता हूँ :)
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