ओ मेरे रहनुमा !
इतना मुझे बता दे,
वो राह कौनसी है,
जो गुज़रे तेरे दरसे!
हो कंकड़ कीचड या कांटे,
के चारसूं घने अँधेरे,
बस इक बूँद रौशनी मिले
जो तेरे दीदार मुझे करा दे!
न मिले रौशनी मुझसे
किसीको,ग़म नहीं है,
मुझसे अँधेरा न बढे,
इतनी मुझे दुआ दे!
ओ मेरे रहनुमा!
बस इतनी मुझे दुआ दे!
आजकल ऐसे लगता है जैसे मै किसी गहरी खाई में जा गिरी हूँ।...मेरा आक्रोश कोई सुनता नहीं....दम घुट रहा है.....आनेवाली साँसों की चाहत नहीं.....जीने का कोई मकसद नहीं....क्यों जिंदा हूँ,पता नहीं.......
यह लडकी अपने दादा दादी ,माता, पिता तथा भाई बहनों समेत उनके खेत में बने मकान में, रहा करती थी. उसके दादा जी उसे रोज़ सब से करीब वाले बस के रास्ते पे अपनी कार से ले जाया करते.बस उसे एक छोटे शहर ले जाती जहाँ उस की पाठशाला थी.
जब से सिम्बा दो माह का हुआ वह भी गाडी में कूद जाया करता. जब कभी वो बच्ची बिना uniform के बाहर आती तो उसे गाडी के तरफ दौड़ने की परवाह न होती. वो तीनो एक दोराहे तक जाते जहाँ से बच्ची बस में सवार हो,चली जाती. हाँ,दादाजी को हमेशा सतर्क रहना पड़ता की,कहीँ सिम्बा गाडी से छलांग न लगा ले!
आम दिनों की तरह वो भी एक दिन था. लडकी बस में सवार हो गयी. जब बस स्थानक पे बस रुकी और वो उतरी तो देखा,सिम्बा बस के बाहर अपनी दम और कान दबाये खडा था! बड़े अचरज से उस के मूह से निकला," सिम्बा..!"
और सिम्बा अपना डर भूल के बच्ची के नन्हें कंधों पे पंजे टिका उस का मूह चाटने लगा...! बस का वह आखरी स्थानक था. बच्ची को सब प्रवासी जानते थे...सभी अतराफ़ में खड़े हो,बड़े कौतुक से , तमाशा देखने लगे!
ज़ाहिरन,सिम्बा उस कच्ची सड़क पे आठ नौ किलोमीटर, बस के पीछे दौड़ा था...और उसे लेने दादाजी को बस के पीछे आना पडा. अब सिम्बा को कार में बिठाने की कोशिश होने लगी. उसे विश्वास दिलाने के ख़ातिर, बच्ची कार में बैठ गयी...पर सिम्बा को विश्वास न हुआ...मजाल की वह कार में घुसे!
बच्ची को पाठशाला के लिए देर होने लगी और अंत में उसने अपनी शाला की ओर चलना शुरू कर दिया. सिम्बा उसके पीछे, पीछे चलता गया. अपनी कक्षा पे पहुँच बच्ची ने फिर बहुत कोशिश की सिम्बा को वापस भेजने की,लेकिन सब व्यर्थ! अंत में वर्ग शिक्षिका ने कुत्ते को अन्दर आने की इजाज़त देही दी! वो दिनभर उस बच्ची के पैरों के पास, बेंच के नीचे बैठा रहा!
उस समय सिम्बा साल भरका रहा होगा. बच्ची थी कुछ दस ,ग्यारह साल की..उस शाम जब दादा जी,सिम्बा और बच्ची घर लौटे तो सिम्बा की तबियत बिगड़ गयी....कभी न ठीक होने के लिए..जो तीन दिन वह ज़िंदा रहा,दिन भर बरामदे में,अपने बिस्तर पे पडा रहता. ठीक शाम सात बजे वह अपनी आँखें खोल ,रास्ते की ओर निहारता..जहाँ से वो बच्ची उसे आते दिखती...बच्ची आके उसका सर थपकती और वो फिर अपनी आँखें मूँद लेता. उसकी बीमारी के लिए कोई दवा नही थी.
तीसरी रात,पूरा परिवार सिम्बा के अतराफ़ में बैठ गया. सब को पता था,की,अब वह चंद पल का मेहमान है...लेकिन सिम्बा अपनी गर्दन घुमा,घुमा के किसी को खोज रहा था. बच्ची अपने कमरे में रो रही थी. उस में सिम्बा के पास जाने की हिम्मत नही थी. अंत में दादा जी बच्ची को बाहर ले आए...जैसे ही बच्ची ने सिम्बा का सर थपका,सिम्बा ने अपनी आँखें बंद कर ली...फिर कभी न खोली..वह लडकी और कोई नही,मै स्वयं थी...