सोमवार, 6 सितंबर 2010

अरसा बीता ...

लम्हा,लम्हा जोड़ इक दिन बना,
दिन से दिन जुडा तो हफ्ता,
और फिर कभी एक माह बना,
माह जोड़,जोड़ साल बना..
समय ऐसेही बरसों बीता,
तब जाके उसे जीवन नाम दिया..
जब हमने  पीछे मुडके देखा,
कुछ ना रहा,कुछ ना दिखा..
किसे पुकारें ,कौन है अपना,
बस एक सूना-सा रास्ता दिखा...
मुझको किसने कब था थामा,
छोड़ के उसे तो अरसा बीता..
इन राहों से जो  गुज़रा,
वो राही कब वापस लौटा?

 

कुछ  कपडे  के  तुकडे ,कुछ  जल  रंग  और  कुछ  कढ़ाई .. इन्हीं के संयोजन से ये भित्ती चित्र बनाया है.




26 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

आह ! एक वीरान सा लम्बा रास्ता ....वापसी मगर किसकी हुयी ?

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

आपकी रचना पढ़ कर एक बात याद आ गयी...मन के हारे हार है...मन के जीते जीत...
सो किसकी राह देखनी...अपने मन को शांत और खुश रखो, सब में खुद को देखो...सब तुम्हारा है...तुम सब के हो...

मनोज कुमार ने कहा…

किसे पुकारें ,कौन है अपना,
बस एक सूना-सा रास्ता दिखा...
मुझको किसने कब था थामा,
छोड़ के उसे तो अरसा बीता..
इन राहों से जो गुज़रा,
वो राही कब वापस लौटा?

कविता की भाषा सीधे-सीधे जीवन से उठाए गए शब्दों और व्यंजक मुहावरे से निर्मित हैं।

गीली मिट्टी पर पैरों के निशान!!, “मनोज” पर, ... देखिए ...ना!

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

क्षमा जी,
अब अगर आज मैं कहूँ कि यह आपकी दास्तान है तो आप शायद इंकार नहीं करेंगीं. जैसे छोटेछोटे कपड़े और धागों को जोड़ती हैं आप वे लम्हें और दिन और हफ्ते ही तो हैं! और तब बनता है जीवन,एक चादर या एक पेंटिंग या कोई लैंडस्केप. तब आपको पीछे मुड़कर देखने पर वो छोटे लम्हे कहीं नज़र नहीं आएंगे, क्योंकि वो खो चुके हैं ख़ुद को और समा गए हैं जीवन में.
गुलज़ार साहब को ही कोट कर पाता हूँ हमेशाः
इक बार वक़्त से, लम्हा गिरा कहीं
वहाँ दास्ताँ मिली, लम्हा कहीं नहीं.

रही बात उस रास्ते और मोड़ की तो इस मोड़ से जाते हैं.

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत अहसासों को पिरोया है आपने।

हिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।

हिंदी और अर्थव्यवस्था, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

bahut khubsurat abhivyakti...:)

bhagwan kare aapke jeevan me sirf khubsurat pal hi juden......:)

khubsurat kalakari.....bhi!!

vandana gupta ने कहा…

बेहद गहन भाव्……………कुछ लम्हे कहीं ठहर जाते हैं यादों मे मगर जो चले जाते हैं फिर वापस कब आये हैं।

arvind ने कहा…

bahut badhiya rachna...achhe ahsaas.

Unknown ने कहा…

अच्छे बुरे लम्हों से ही तो जिन्दगी का ताना बाना बुना जाता है ..... सरल और सटीक अभिव्यक्ति के लिए बधाई !!

जय हो मंगलमय हो

Basanta ने कहा…

Very beautiful poem and the picture! I am reading it again and again. Life's agony has come so vividly in your creations.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सुन्दर भित्ति चित्र और उस पर आपकी कविता ..बहुत सुन्दर

शारदा अरोरा ने कहा…

मुझको किसने कब था थामा,
छोड़ के उसे तो अरसा बीता॥
मुझे तो इन पंक्तियों ने झकझोरा , जैसे मैंने अपने ब्लॉग पर लिखा है , प्यास सभी को उसी घूँट की ....बस वही गंध तो यहाँ भी पा रही हूँ ।

Asha Joglekar ने कहा…

इन राहों से जो गुज़रा,
वो राही कब वापस लौटा?
अति सुंदर । लम्हा लम्हा जोड कर बनाई जिंदगी कैसे पल में रीत जाती है ।
आप की कलाकृति भी बहुत मनभावन ।

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' ने कहा…

जब हमने पीछे मुडके देखा,
कुछ ना रहा,कुछ ना दिखा..
किसे पुकारें ,कौन है अपना,
बस एक सूना-सा रास्ता दिखा...
मुझको किसने कब था थामा,
छोड़ के उसे तो अरसा बीता..
इन राहों से जो गुज़रा,
वो राही कब वापस लौटा?
वाह....बहुत खूब...
इसीलिए तो कहा है...
जीवन के सफ़र में राही...
मिलते हैं बिछड़ जाने को.

राणा प्रताप सिंह (Rana Pratap Singh) ने कहा…

बहुत सुन्दर दार्शनिक पंक्तियाँ|
जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबहो शाम|
|
ब्रह्माण्ड

अरुणेश मिश्र ने कहा…

जीवन की यात्रा ।
अक्षर . शब्द . मात्रा ।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच है गुज़रे मुसाफिर लौट कर नही आते ...
दिन महीने साल यूँ ही बीत जाते ...
अच्छी रचना है बहुत ही ....

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

अति सुन्दर रचना.
हार्दिक बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

वाह आपका पद्य भी गद्य की ही भांति सुंदर है !

shikha varshney ने कहा…

क्षमा जी ! न जाने कब से आपके ब्लॉग का लिंक ढूंढ रही थी आपके आई डी से जो लिंक मिलता था वहां कोई पोस्ट ही नहीं मिलती थी ...आज अभिषेक की पोस्ट से ये लिंक मिला ..
बहुत सुन्दर कविता लिखी है .अब आना लगा रहेगा :)

शोभना चौरे ने कहा…

sundar bhavo ke sath sundar kala .

निर्मला कपिला ने कहा…

इन राहों से जो गुज़रा,
वो राही कब वापस लौटा?
बस यादें रह जाती हैं जो कभी पीछा नहीं छोडती। अच्छी लगी रचना बधाई।

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

aajkal kahan vyast hain ?


हर पल होंठों पे बसते हो, “अनामिका” पर, . देखिए

mridula pradhan ने कहा…

bahut sunder.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

जब हमने पीछे मुडके देखा,
कुछ ना रहा,कुछ ना दिखा..
किसे पुकारें ,कौन है अपना,
बस एक सूना-सा रास्ता दिखा...
..सत्य से साक्षात्कार कराती पंक्तियाँ।

निर्झर'नीर ने कहा…

आपके लेखन में इतने अलग अलग रंग है , समझ ही नहीं आता आपको जरा भी जान पाए है हर बार अलग ही रंग रूप लिए आती हो ..नि:संदेह एक बहुत ही बेजोड़ रचना ,सिल को छोगयी

jaan jayenge..dheere,dheere..!

shayad aapko jaanna itna aasaan nahi hai