गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

दूर अकेली चली......




कपडेके चंद टुकड़े, कुछ कढाई, कुछ डोरियाँ, और कुछ water कलर...इनसे यह भित्ति चित्र बनाया था...कुछेक साल पूर्व..


वो राह,वो सहेली...
पीछे छूट चली,
दूर  अकेली  चली  
गुफ्तगू, वो ठिठोली,
पीछे छूट चली...

किसी मोड़ पर  मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली...

धुआँ पहन  चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
जब बनी ज़िंदगी पहेली
वो राह ,वो सहेली...

ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...


26 टिप्‍पणियां:

shikha varshney ने कहा…

बेहतरीन...अकेलेपन को प्रभावी शब्द दिये हैं आपने.

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत सुन्दर क्षमा जी

किसी मोड़ पर मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली...

दोनों रचनाये बहुत प्यारी .
कलम की और सुई-धागे की भी.....

सादर.

Dr Xitija Singh ने कहा…

वाह ... क्या बात है ... ज़िन्दगी के चार पड़ाव ... मेरी भी एक रचना ऐसी ही है "सफ़र " ... हुबहू .. :)

kamal prakash ravi ने कहा…

bahut sunder....baar baar padhta jaa raha hun bas!!!hamesha jaise kkhud se hi mai kuch keh raha hun!!!

Arvind Mishra ने कहा…

ये बेशकीमती रचनाएं ,सृजित कर्म तो उसके साथ हैं -कितनी समृद्ध है वह!

संजय भास्‍कर ने कहा…

कविता की प्रत्येक पंक्ति में अत्यंत सुंदर भाव हैं.... संवेदनाओं से भरी बहुत सुन्दर कविता.

संजय भास्‍कर ने कहा…

... ऐसी रचनाएं कभी कभी पढने को मिलती हैं।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अपने पुराने मित्रों में छिपा हुआ अपना बचपन।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

खूबसूरत भित्ति चित्र और उस पर सटीक पंक्तियाँ ...

vandana gupta ने कहा…

वाह कितने सुन्दर भाव पिरोये हैं।

Aruna Kapoor ने कहा…

बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति!...कुछ पीछे छूट जाने की वेदना...अकेलेपन का दु:खद एहसास!

...लेकिन क्षमा जी!...आप की उपस्थिति ही सुखद एहसास है!

Aruna Kapoor ने कहा…

कितनी सुन्दर भावोक्ति!...बार बार पढ़ने पर भी मन नहीं भरता!

सदा ने कहा…

किसी मोड़ पर मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली..
आपको पढ़ना हमेशा ही अच्‍छा लगता है ...उम्‍दा भाव लिए

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

कलाकृति और कविता दोनों प्रभावशाली, बधाई.

Udan Tashtari ने कहा…

गहन अभिव्यक्ति!!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

धुआँ पहन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,...

इन शब्दों से भी तो आपके एक चित्र ही खींचा है ... सजीव संवेदनाएं औए वेदनाएं भरा ...
बहुत ही गहन रचना ...

शारदा अरोरा ने कहा…

behad khubsoorat...

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

apki ye rachna padh kar ek geet yaad aata hai...

jeene k bahane laakh magar...
tujhko jeena aaya hi nahi...
koi bhi tera ho sakta tha..
tune par apnaya hi nahi.

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

सुन्दर कविता |

Satish Saxena ने कहा…

संवेदनशील लोगों की बात ही कुछ अलग है ....
शुभकामनायें आपको !

Kunwar Kusumesh ने कहा…

आपका लेखन और कलाकारी दोनों ज़बरदस्त हैं

Kailash Sharma ने कहा…

ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...

....बहुत मर्मस्पर्शी रचना..बहुत सुन्दर

मनोज कुमार ने कहा…

भावुक कर देने वाली रचना।
नीचे का चित्र लाजवाब है।

abhi ने कहा…

चित्र और कविता दोनों लाजवाब है..कविता और चित्र के कॉम्बिनेसन से तो किसी को भी कुछ न कुछ याद आ जायेगा!

dinesh gautam ने कहा…

बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति!

Saras ने कहा…

ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...
हम सबको इस स्तिथि से गुज़ारना हटा है ...नए सिरे से नए लोगों से रिश्ते बनाने और निभाने होते हैं .!!!!बहुत सुन्दर और भापूर्ण