कपडेके चंद टुकड़े, कुछ कढाई, कुछ डोरियाँ, और कुछ water कलर...इनसे यह भित्ति चित्र बनाया था...कुछेक साल पूर्व..
वो राह,वो सहेली...
पीछे छूट चली,
दूर अकेली चली
गुफ्तगू, वो ठिठोली,
पीछे छूट चली...
पीछे छूट चली,
दूर अकेली चली
गुफ्तगू, वो ठिठोली,
पीछे छूट चली...
किसी मोड़ पर मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली...
धुआँ पहन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
जब बनी ज़िंदगी पहेली
वो राह ,वो सहेली...
ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...
26 टिप्पणियां:
बेहतरीन...अकेलेपन को प्रभावी शब्द दिये हैं आपने.
बहुत सुन्दर क्षमा जी
किसी मोड़ पर मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली...
दोनों रचनाये बहुत प्यारी .
कलम की और सुई-धागे की भी.....
सादर.
वाह ... क्या बात है ... ज़िन्दगी के चार पड़ाव ... मेरी भी एक रचना ऐसी ही है "सफ़र " ... हुबहू .. :)
bahut sunder....baar baar padhta jaa raha hun bas!!!hamesha jaise kkhud se hi mai kuch keh raha hun!!!
ये बेशकीमती रचनाएं ,सृजित कर्म तो उसके साथ हैं -कितनी समृद्ध है वह!
कविता की प्रत्येक पंक्ति में अत्यंत सुंदर भाव हैं.... संवेदनाओं से भरी बहुत सुन्दर कविता.
... ऐसी रचनाएं कभी कभी पढने को मिलती हैं।
अपने पुराने मित्रों में छिपा हुआ अपना बचपन।
खूबसूरत भित्ति चित्र और उस पर सटीक पंक्तियाँ ...
वाह कितने सुन्दर भाव पिरोये हैं।
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति!...कुछ पीछे छूट जाने की वेदना...अकेलेपन का दु:खद एहसास!
...लेकिन क्षमा जी!...आप की उपस्थिति ही सुखद एहसास है!
कितनी सुन्दर भावोक्ति!...बार बार पढ़ने पर भी मन नहीं भरता!
किसी मोड़ पर मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली..
आपको पढ़ना हमेशा ही अच्छा लगता है ...उम्दा भाव लिए
कलाकृति और कविता दोनों प्रभावशाली, बधाई.
गहन अभिव्यक्ति!!
धुआँ पहन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,...
इन शब्दों से भी तो आपके एक चित्र ही खींचा है ... सजीव संवेदनाएं औए वेदनाएं भरा ...
बहुत ही गहन रचना ...
behad khubsoorat...
apki ye rachna padh kar ek geet yaad aata hai...
jeene k bahane laakh magar...
tujhko jeena aaya hi nahi...
koi bhi tera ho sakta tha..
tune par apnaya hi nahi.
सुन्दर कविता |
संवेदनशील लोगों की बात ही कुछ अलग है ....
शुभकामनायें आपको !
आपका लेखन और कलाकारी दोनों ज़बरदस्त हैं
ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...
....बहुत मर्मस्पर्शी रचना..बहुत सुन्दर
भावुक कर देने वाली रचना।
नीचे का चित्र लाजवाब है।
चित्र और कविता दोनों लाजवाब है..कविता और चित्र के कॉम्बिनेसन से तो किसी को भी कुछ न कुछ याद आ जायेगा!
बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...
हम सबको इस स्तिथि से गुज़ारना हटा है ...नए सिरे से नए लोगों से रिश्ते बनाने और निभाने होते हैं .!!!!बहुत सुन्दर और भापूर्ण
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