शनिवार, 19 मई 2012

नज़रे इनायत नही...



पार्श्वभूमी  बनी  है , घरमे पड़े चंद रेशम के टुकड़ों से..किसी का लहंगा,तो किसी का कुर्ता..यहाँ  बने है जीवन साथी..हाथ से काता गया सूत..चंद, धागे, कुछ डोरियाँ और कढ़ाई..इसे देख एक रचना मनमे लहराई..

एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
 बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..

बहारों की  नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..

18 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत खूबसूरत .... बहारें फिर से आएंगी ...

ashish ने कहा…

खूबसूरत कृति और भावप्रवण कविता.आभार .

ashish ने कहा…

खूबसूरत कृति और भावप्रवण कविता.आभार .

shikha varshney ने कहा…

ओह..बहारे फिर भी आती हैं बहारें फिर से आएँगी.

Arvind Mishra ने कहा…

कविता और कला के बीच का भाव -मर्म विचलित करता है -इतने श्रेष्ठ के साथ यह प्रवंचना के भाव !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वाह, धागों से बुनी पेड़ों की सलवटें..

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

सही बात है, दरख़्त तभी तक भाते हैं जब तक घने रहें

vandana gupta ने कहा…

एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..

उफ़ दर्द ही दर्द भर दिया………कलाकृति तो सुन्दर है ही।

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बामुलिहाज़ा होशियार …101 …अप शताब्दी बुलेट एक्सप्रेस पधार रही है

Rajesh Kumari ने कहा…

आपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार २२ /५/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |

सदा ने कहा…

भावमय करती शब्‍द रचना ... आभार उत्‍कृष्‍ट लेखन के लिए ...

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत रचना...लाज़वाब चित्र

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

बहारें फिर भी आती हैं,
बहारें फिर भी आयेंगीं!!

मनोज कुमार ने कहा…

बहार और प्रकृति की पृष्ठभूमि में कविता और चित्र दोनों अच्छे लगे।

सदा ने कहा…

कल 23/05/2012 को आपकी इस पोस्‍ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.

आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


... तू हो गई है कितनी पराई ...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

जड़ चित्र पे कुछ भी नहीं आता ... पर आपकी कला ने इसको सजीव कर दिया है ... बहुत खूबसूरत है ये कढाई ...
रचना भी लाजवाब है ...

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

खूबसूरत ....

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

बहुत सुन्दर....
बेहतरीन रचना....