एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..
बहारों की नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..
18 टिप्पणियां:
बहुत खूबसूरत .... बहारें फिर से आएंगी ...
खूबसूरत कृति और भावप्रवण कविता.आभार .
खूबसूरत कृति और भावप्रवण कविता.आभार .
ओह..बहारे फिर भी आती हैं बहारें फिर से आएँगी.
कविता और कला के बीच का भाव -मर्म विचलित करता है -इतने श्रेष्ठ के साथ यह प्रवंचना के भाव !
वाह, धागों से बुनी पेड़ों की सलवटें..
सही बात है, दरख़्त तभी तक भाते हैं जब तक घने रहें
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..
उफ़ दर्द ही दर्द भर दिया………कलाकृति तो सुन्दर है ही।
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - बामुलिहाज़ा होशियार …101 …अप शताब्दी बुलेट एक्सप्रेस पधार रही है
आपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार २२ /५/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |
भावमय करती शब्द रचना ... आभार उत्कृष्ट लेखन के लिए ...
बहुत ख़ूबसूरत रचना...लाज़वाब चित्र
बहारें फिर भी आती हैं,
बहारें फिर भी आयेंगीं!!
बहार और प्रकृति की पृष्ठभूमि में कविता और चित्र दोनों अच्छे लगे।
कल 23/05/2012 को आपकी इस पोस्ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
... तू हो गई है कितनी पराई ...
जड़ चित्र पे कुछ भी नहीं आता ... पर आपकी कला ने इसको सजीव कर दिया है ... बहुत खूबसूरत है ये कढाई ...
रचना भी लाजवाब है ...
खूबसूरत ....
बहुत सुन्दर....
बेहतरीन रचना....
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