कपडेके चंद टुकड़े, कुछ कढाई, कुछ डोरियाँ, और कुछ water कलर...इनसे यह भित्ति चित्र बनाया था...कुछेक साल पूर्व..
वो राह,वो सहेली...
पीछे छूट चली,
दूर अकेली चली
गुफ्तगू, वो ठिठोली,
पीछे छूट चली...
पीछे छूट चली,
दूर अकेली चली
गुफ्तगू, वो ठिठोली,
पीछे छूट चली...
किसी मोड़ पर मिली,
रात इक लम्बी अंधेरी,
रिश्तों की भीड़ उमड़ी,
पीछे छूट चली...
धुआँ पहन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
जब बनी ज़िंदगी पहेली
वो राह ,वो सहेली...
ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...
12 टिप्पणियां:
वक़्त तो गुज़र जाता है. सहारा बस उन्ही यादों का रह जाता है जिसमे गोता लगाकर फिर से ख़ुशी के दो पल ढूंढें जा सकें. सुन्दर पंक्तियाँ.
ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...
पता नहीं चलता की दिल का डैड शब्दों में है या इस कढाई में ... दोनों ही गहरे दर्द और अकेलेपन की दास्तां कह रहे हैं ... बहुत ही लाजवाब ... उम्दा ...
धुआँ पहन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
जब बनी ज़िंदगी पहेली
वो राह ,वो सहेली...
बेहद खूबसूरत बयानगी है. सच है वक्त गुजर जाता है और उसके साथ बहुत कुछ पीछे छूट जाता है. रह जाता है तो बस एहसास और कुछ यादें.
कृति बहुत सुन्दर है ...भीतर का दर्द भी फूट-फूट पड़ रहा है ..
ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
अनजान बस्ती,बूटा पत्ती,
बिछड़ गयी कबकी,
वो राह,वो सहेली...
...बहुत ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...बहुत मर्मस्पर्शी..
धुआँ पहन चली गयी,
'शमा' एक जली हुई,
होके बेहद अकेली,
ऐसे लाजवाब शब्द कैसे जुड़ जाते है ..सचमुच बहुत सार है ऐसा जैसे समुद्र को इकठा करके बूंद बना दिया हो....
gujare vakt ki khoobsurat yadon ko yad karte akelepan ke dard ko bakhoobi ubhara hai ..
राह के उस पार कितना कुछ छोड़ आया है जीवन..
ये कारवाँ उसका नही,
कोई उसका अपना नही,
..... बहुत ही लाजवाब ... उम्दा
एकला चलो रे !
वाह.सुन्दर भावपूर्ण .बहुत बहुत बधाई...
आपकी सबसे खूबसूरत सहेलियां है ापकी कला और आपकी कलम ।
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