एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे,
आखरी बार झडे,पत्ते इस पेड़ के,
बसंत आया नही उस पे,पलट के,
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे..
बहारों की नज़रे इनायत नही,
पंछीयों को इस पेड़ की ज़रुरत नही,
कोई राहगीर अब यहाँ रुकता नही,
के दरख़्त अब छाया देता नही...
बहारों की नज़रे इनायत नहीं..
14 टिप्पणियां:
एक बसंत जो खामोश गुज़र गया -और गुज़रते वक्त बुलाया भी न गया !
भड़भड़ करती इस दुनिया में, आओ जीवन राग ढूढ़ लें,
संबंधों की भीड़भाड़ में, अपने हेतु विराग ढूढ़ लें।
बहुत ही सार्थक और सुन्दर प्रस्तुती,सादर ।
आपकी यह रचना आज गुरुवार (11-07-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
बहुत मर्मस्पर्शी रचना....
सुन्दर भाव !
छूती है मर्म को ... पर फिर भी ऐसे पेड़ काम आते हैं ... चाहे किसी घर के ड्राइंग रूम मरीन या किरोशिये से सजने के लिए ...
खामोशी की दास्तां ....
हिल हिल के करतीं हैं, डालें इशारे...
एक ही मौसम है,बरसों यहाँ पे
बहुत मर्मस्पर्शी रचना....
@ राज चौहान
क्योंकि सपना है अभी भी
http://rajkumarchuhan.blogspot.in
मन को छूती अभिव्यक्ति ...
तवै तुमि एकला चलोरे ....
समय समय का फेर है समय समय की बात
किसी समय का दिन बड़ा किसी समय की रात
सुंदर रचना..
बहारें पिर भी आयेंगी ।
बड़े सरल शब्दों में सरल अभिव्यक्ति ..
बधाई !
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