क्षमा प्रार्थी हूँ, एक पुरानी रचना पेश कर रही हूँ....!
सुना ,दीवारों के होते हैं कान ,
काश होती आँखें और लब!
मै इनसे गुफ्तगू करती,
खामोशियाँ गूंजती हैं इतनी,
किससे बोलूँ? कोई है ही नही..
आयेंगे हम लौट के,कहनेवाले,
बरसों गुज़र गए , लौटे नही ,
जिनके लिए उम्रभर मसरूफ़ रही,
वो हैं मशगूल जीवन में अपनेही,
यहाँ से उठे डेरे,फिर बसे नही...
सजी बगिया को ,रहता है फिरभी,
इंतज़ार क़दमों की आहटों का,
पर कोई राह इधर मुडती नही ,
पंखे की खटखट,टिकटिक घड़ी की,
अब बरदाश्त मुझसे होती नही...
5 टिप्पणियां:
प्रतीक्षारत नेत्रों की पीड़ा, अवर्णनीय है वह स्तब्धता।
अभी राह में कई मोड़ है कोई आएगा कोई जाएगा
जिसने तुझको भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो
०बशीर बद्र
गहरी संवेदना लिए ... मन के भाव ... काश बोल सकते ये दरों दिवार .. यूं तन्हाई तो न होती ...
बहुत ही सुन्दर ..
:(
एक टिप्पणी भेजें