लाख ज़हमतें , हज़ार तोहमतें,
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
वो अनारकली तो नही थी,
ना वो उसका सलीम ही,
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने..
महिला जिसे मैंने बहुत करीब से जाना और जो अब अपने आखरी पल गिन रही है,ये चंद पंक्तियाँ उसीके बारेमे कुछ साल पहले लिखी थीं।
चलती रही,काँधों पे ढ़ोते हुए,
रातों की बारातें, दिनों के काफ़िले,
छत पर से गुज़रते रहे.....
वो अनारकली तो नही थी,
ना वो उसका सलीम ही,
तानाशाह रहे ज़माने,
रौशनी गुज़रती कहाँसे?
बंद झरोखे,बंद दरवाज़े,
क़िस्मत में लिखे थे तहखाने..
महिला जिसे मैंने बहुत करीब से जाना और जो अब अपने आखरी पल गिन रही है,ये चंद पंक्तियाँ उसीके बारेमे कुछ साल पहले लिखी थीं।
7 टिप्पणियां:
ओह
मन की पीड़ा मनहिं समायी,
काहे इस जग आस लगाई।
बेहद मार्मिक!
ब्लॉग बुलेटिन की ६०० वीं बुलेटिन कभी खुशी - कभी ग़म: 600 वीं ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
मार्मिक ...
ज़माना सितम धाता रहता है नारी पे ... मन की पीड़ा कहा निकले ...
यह कैसा सच! जिसके लिये भी ये तहखाने लिख्खे
रब उसके नसीब में रौशनी बख्शे !
आमीन
किसी के दिल की पीड़ा को कहती कविता बहुत मार्मिक बात कह जाती है.
एक टिप्पणी भेजें