छुट्टी का दिन और दोपहर का समय था। मै मेज़ पे खाना लगा रही थी...एक फोन बजा...मैंने बात की...फिर अपने काम मे लग गयी...
कुछ समय बाद जब मेरे पती खाना खाने बैठे,तो मुझसे पूछा,
" कौन मर गया?"
मै :" मर गया? कौन ? किसने कहा?"
पती: " तुमने ! तुमने कहा..."
मै : " मैंने कब कहा? मुझे तो कुछ ख़बर नही !! क्या कह रहे हो....!"
पती: " कमाल तुम्हारी भी...कहती हो और भूल जाती हो...!"
मै :" कब, किसे कहा, इतना तो बताओ...!"
पती: " मुझे क्या पता किससे कहा..मैंने तो कहते सुना..."
मै :" लेकिन कब? कब सुना...? इतना तो बता दो...! मै तो कल शाम से किसी को मिली भी नही..और ये बात तो मेरे मुँह से निकली ही नही .... "
मै परेशान हुए जा रही थी...ये पतिदेव ने क्या सुन लिया...जो मैंने कहाही नही....!!!
पती:" अभी, अभी, खाना लगाते समय तुम किसीको कह रही थी कि, कोई मर गया...किसका फोन था?"
मै :" फोन तो मेरी एक सहेली का था...शोभना का...लेकिन उससे मैंने ऐसा तो कुछ नही कहा...वो तो मुझसे नासिक जाने की तारीख पूछ रही थी...बस इतनाही...मरने वरने की कहाँ बात हुई...मुझे समझ मे नही आ रहा...???"
बस तभी समझ मे आ गया...मै ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी...
मै : उफ्फो...!! मै उसे तारीख बता रही थी..मेरे नासिक जानेकी..मराठी मे कहा,' एक मेला...'..."
इसका अगला पिछ्ला सन्दर्भ पता न हो तो वाक़ई, मराठी समझने वाला, लेकिन जिसकी मूल भाषा हिन्दी हो , यही समझ सकता है जो इन्हों ने समझा.."एक मेला" इस आधे अधूरे वाक्य का मतलब होता है," एक मर गया"...मेला=मर गया...
मुझे शोभना ने पूछा: "( मराठीमे) तुम नासिक कब आ रही हो?"
मेरा जवाब था: " एक मेला... "....मतलब, मई माह की एक तारिख को...एक मई को.... पती ने वो सन्दर्भ सुनाही नही था...जब शोभना ने मुझसे फिरसे पूछा:" पक्का है ना?"( मराठीमे =नक्की ना...एक मेला?")
जवाब मे मैंने कहा था : " हाँ पक्का...( नक्की...)' एक मेला', ...(एक मई को...)।
मै शोभना को बार, बार 'एक मेला' कहके यक़ीन दिला रही थी...और वो यक़ीनन जानना चाह रही थी, क्योंकि, मुझे एक वर्क शॉप लेना था!! नासिकमे...तथा उस मुतल्लक़ अन्य लोगों को इत्तेला देनी थी...जो काम शोभना को सौंपा गया था...!!!!
इतनी बार जब मैंने उसे" एक मेला' कह यक़ीन दिलाया, तो मेरे पतिदेव को यक़ीन हो गया कि,कोई एक मर गया ....और मै नकारे चली जा रही थी...जितना नकार रही थी, इनका गुस्सा बढ़ता जा रहा था...!
10 टिप्पणियां:
बातचीत बढ़िया रही!
क्षमाजी,
'भाषा का अनुवाद और अनुवाद की भाषा' का मैंने भी बहुत लुत्फ़ उठाया है ! अपने पूज्य पिताजी के सान्निध्य में अनुवाद के अनर्थ को खूब समझा भी है ! आपका आलेख उसकी तस्दीक करता है !
बहरहाल, आपके प्रति आभार प्रकट करने आया था यहाँ ! मेरी कुछ रचनाओं पर आपकी टिप्पणियां और आपके मंतव्य मिले हैं; एतदर्थ आभारी हूँ !
साभिवादन -- आ.
करिश्मा जी खूब चांगली स्टोरी आहेश ...........
मला खूब चांगली लागेली
aisa bhee hota hai........
इस कहते है ......शब्दों कि कीमत ........एक शब्द बदल जाने किस प्रकार पुरे वाक्य का ही मतलब बदल जाता है .
aapko nhi RAM NAVAMI ki shubhkaamanayein..mazaa aa gaya aapki baat sunkar.. in fact is se do baaton ka pata chalata hai..first, jo baat aapse na kahi jaaye uspar eact na karein and second, har bhasha ka apana maza hai jo ussi bhasha mein aata hai..
changali varta ...lol
aam jindagi me kai majedar kisse ho jaate hai...hasya to hamare dincharya me hi hai...hum har cheej ko bahar talashte hai...
sundar prastuti...
waah.. kshama ji... ise kahte hain sabdon ka sringar.. khubsurat..
मेरे कविता पर आपकी टिपण्णी के लिए शुक्रिया ! और ये क्या बात हुई, आप तो वैसे ही हुनरमंद हैं, मैं तो नौसिखिया हूँ आप सब के सामने ! बस कोशिश करते रहता हूँ की कुछ लिखूं, कुछ सीखूं ! आप इसी तरह उत्साह देते रहेंगे तो ज़रूर एक न एक दिन कुछ अच्छी रचनाएँ भी निकलेगी हमारे कलम से ! आपकी यह रचना अच्छी लगी ! काफी मजेदार है ! परिस्थिति की विडम्बना को मैं अनुभव कर सकता हूँ, क्यूंकि मैं भी इसी तरह के कुछ परिस्थितियों से गुज़र चूका हूँ ! बात ऐसी है कि मैं ठहरा बंगाली और मेरी धर्मपत्नी मराठी है ! अब आप खुद समझ गई होंगी कि हम दोनों में कई बार भाषा को लेकर कैसी कैसी बातें हुई होंगी !
एक टिप्पणी भेजें