छोड़ दिया देखना कबसे
अपना आईना हमने!
बड़ा बेदर्द हो गया है,पलट के पूछता है
कौन हो,हो कौन तुम?
पहचाना नही तुम्हे!
जो खो चुकी हूँ मैं
वही ढूँढता है मुझमे !
कहाँसे लाऊँ पहलेसे उजाले
बुझे हुए चेहरेपे अपने?
आया था कोई चाँद बनके
चाँदनी फैली थी मनमे
जब गया तो घरसे मेरे
ले गया सूरज साथ अपने!
10 टिप्पणियां:
कहाँसे लाऊँ पहलेसे उजाले
बुझे हुए चेहरेपे अपने?
आया था कोई चाँद बनके
चाँदनी फैली थी मनमे
जब गया तो घरसे मेरे
ले गया सूरज साथ अपने!
दर्द का समंदर - बहुत खूब - अति सुंदर
बहुत सुन्दर रचना!
asar chod gayee ye rachana.....
सुन्दर कविता है दी..
Vaah!
शब्दों में क्या क्या पिरोया जा सकता है। अब पता चला।
"जब गया तो घर से मेरे ..."
वाह ! क्या बात है ....!!!.
बहुत सुन्दर भाव-अभिव्यक्ति ....
भग्वान आप की कलम को और बल बख्शे ...
---- राकेश वर्मा
ati sundar.. kshama ji..
व्यथा को सुन्दर शब्द दिए हैं.....
bahut sunder klikhaa hi aapne...
aainaa.....
poochhtaa hai ...
waah..
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