बुधवार, 3 मार्च 2010

बोले तू कौनसी बोली ?

कुछ अरसा हुआ इस बात को...पूरानें मित्र परिवार के घर भोजन के लिए गए थे। उनके यहाँ पोहोंचते ही हमारा परिचय, वहाँ, पहले से ही मौजूद एक जोड़े से कराया गया। उसमे जो पती महोदय थे, मुझ से बोले,

"पहचाना मुझे?"



मै: "माफ़ी चाहती हूँ...लेकिन नही पहचाना...! क्या हम मिल चुके हैं पहले? अब जब आप पूछ रहें है, तो लग रहा है, कि, कहीँ आप माणिक बाई के रिश्तेदार तो नही? उनके मायके के तरफ़ से तो यही नाम था...हो सकता है, जब अपनी पढाई के दौरान एक साल मै उनके साथ रही थी, तब हम मिले हों...!"



स्वर्गीय माणिक बाई पटवर्धन, रावसाहेब पटवर्धन की पत्नी। रावसाहेब तथा उनके छोटे भाई, श्री. अच्युत राव पटवर्धन, आज़ादी की जंग के दौरान, राम लक्ष्मण की जोड़ी कहलाया करते थे। ख़ुद रावसाहेब पटवर्धन, अहमदनगर के 'गांधी' कहलाते थे...उनका परिवार मूलत: अहमदनगर का था...इस परिवार से हमारे परिवार का परिचय, मेरे दादा-दादी के ज़मानेसे चला आ रहा था। दोनों परिवार आज़ादी की लड़ाई मे शामिल थे....



मै जब पुणे मे महाविद्यालयीन पढाई के लिए रहने आयी,तो स्वर्गीय रावसाहेब पटवर्धन, मेरे स्थानीय gaurdian थे।

जिस साल मैंने दाखिला लिया, उसी साल उनकी मृत्यू हो गयी, जो मुझे हिला के रख गयी। अगले साल हॉस्टल मे प्रवेश लेने से पूर्व, माणिक बाई ने मेरे परिवार से पूछा,कि, क्या, वे लोग मुझे छात्रावास के बदले उनके घर रख सकते हैं? अपने पती की मृत्यू के पश्च्यात वो काफ़ी अकेली पड़ गयीं थीं...उनकी कोई औलाद नही थी। मेरा महाविद्यालय,उनके घरसे पैदल, ५ मिनटों का रास्ता था।



मेरे परिवार को क़तई ऐतराज़ नही था। इसतरह, मै और अन्य दो सहेलियाँ, उनके घर, PG की हैसियत से रहने लगीं। माणिक बाई का मायका पुणे मे हुआ करता था...भाई का घर तो एकदम क़रीब था।

उस शाम, हमारे जो मेज़बान थे , वो रावसाहेब के परिवार से नाता रखते थे/हैं....यजमान, स्वर्गीय रावसाहेब के छोटे भाई के सुपुत्र हैं...जिन्हें मै अपने बचपनसे जानती थी।



अस्तु ! इस पार्श्व भूमी के तहत, मैंने उस मेहमान से अपना सवाल कर डाला...!



उत्तर मे वो बोले:" बिल्कुल सही कहा...मै माणिक बाई के भाई का बेटा हूँ...!"



मै: "ओह...! तो आप वही तो नही , जिनके साथ भोजन करते समय हम तीनो सहेलियाँ, किसी बात पे हँसती जा रहीँ थीं...और बाद मे माणिक बाई से खूब डांट भी पड़ी थी...हमारी बद तमीज़ी को लेके..हम आपके ऊपर हँस रहीँ हो, ऐसा आभास हो रहा था...जबकि, ऐसा नही था..बात कुछ औरही थी...! आप अपनी मेडिसिन की पढाई कर रहे थे तब...!"



जवाब मे वो बोले: " बिल्कुल सही...! मुझे याद है...!"



मै: " लेकिन मै हैरान हूँ,कि, आपने इतने सालों बाद मुझे पहचाना...!२० साल से अधिक हो गए...!"



उत्तर:" अजी...आप को कैसे भूलता...! उस दोपहर भोजन करते समय, मुझे लग रहा था,कि, मेरे मुँह पे ज़रूर कुछ काला लगा है...जो आप तीनो इस तरह से हँस रही थी...!"



खैर ! हम लोग जम के बतियाने लगे....भाषा के असमंजस पे होने वाली मज़ेदार घटनायों का विषय चला तो ये जनाब ,जो अब मशहूर अस्थी विशेषग्य बन गए थे, अपनी चंद यादगारें बताने लगे...



डॉक्टर: " मै नर्सिंग कॉलेज मे पढाता था, तब की एक घटना सुनाता हूँ...एक बार, एक विद्यार्थिनी की नोट्स चेक कर रहा था..और येभी कहूँ,कि, ये विद्यार्थी, अंग्रेज़ी शब्दों को देवनागरी मे लिख लेते थे..नोट्स मे एक शब्द पढा,' टंगड़ी प्रेसर'...मेरे समझ मे ना आए,कि, ये टांग दबाने का कौन-सा यंत्र है,जिसके बारे मे मुझे नही पता...! कौतुहल इतना हुआ,कि, एक नर्स को बुला के मैंने पूछ ही लिया..उसने क़रीब आके नोट्स देखीं, तो बोली, 'सर, ये शब्द 'टंगड़ी प्रेसर' ऐसा नही है..ये है,'टंग डिप्रेसर !' "



आप समझ ही गए होंगे...ये क्या बला होती है...! रोगी का, ख़ास कर बच्चों का गला तपास ते समय, उनका मुँह ठीक से खुलवाना ज़रूरी होता है..पुराने ज़माने मे तो डॉक्टर, गर घर पे रोगी को देखने आते,तो, केवल एक चम्मच का इस्तेमाल किया करते..!



हमलोगों का हँस, हँस के बुरा हाल हुआ...और उसके बाद तो कई ऐसी मज़ेदार यादेँ उभरी...शाम कब गुज़र गयी, पता भी न चला..!

11 टिप्‍पणियां:

Apanatva ने कहा…

ateet khazana hota hai aur use bat sake kisee ke sath saree yade taro taza hojatee hai aisa lagata hai jaise ki kal kee baat ho........bade pyare hote hai ateet ke lamhe............

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

बहुत मज़ेदार घटना. कई बार ऐसा होता है कि किसी को देख कर बराबर ये लगता है कि इसे कहीं देखा है, लेकिन नाम याद नहीं आता.
टंगडी-प्रेसर..हा हा हा.

रवि धवन ने कहा…

आहा! बेहद सुंदर वर्णन। पुराने पल कितना सुकुन दे जाते हैं...।
मै: "ओह...! तो आप वही तो नही , जिनके साथ भोजन करते समय हम तीनो सहेलियाँ, किसी बात पे हँसती जा रहीँ थीं...और बाद मे माणिक बाई से खूब डांट भी पड़ी थी...हमारी बदतमीज़ी को लेके..हम आपके ऊपर हँस रहीँ हो, ऐसा आभास हो रहा था...जबकि, ऐसा नही था..बात कुछ और ही थी...! आप अपनी मेडिसिन की पढाई कर रहे थे तब...!"

रवि धवन ने कहा…

आहा! बेहद सुंदर वर्णन। पुराने पल कितना सुकुन दे जाते हैं...।

naresh singh ने कहा…

आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ | लीक से हट कर लिखती है आप | बिना किसी बनावट के सीधे दिल से निकले विचार है यहाँ पर | मेरी शुभकामनये इस ब्लॉग के लिए |

ज्योति सिंह ने कहा…

MAIN is rachna ko aapke doosre blog par bhi padhi rahi, shayad kuchh aesa guman ho raha hai ,kafi dilchsp hai ,

Arvind Mishra ने कहा…

'टंगड़ी प्रेसर' ऐसा नही है..ये है,'टंग डिप्रेसर !' "
हा हा हा

Urmi ने कहा…

बहुत बढ़िया लिखा है आपने! कभी कभी हम ऐसे इंसान से मिलते हैं जिन्हें देखकर ये लगता है की पहले कहीं मुलाकात हुई हो पर बात करने पड़ ऐसा बिल्कुल नहीं लगता! उम्दा पोस्ट!

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत रोचक संस्मरण है । अच्छा लगता है ऐसे संस्मरण सब के साथ बाँटना। धन्यवाद

विजयप्रकाश ने कहा…

अच्छा स्मरण है.आजकल भाषा का जो वर्णसंकर रूप हो गया है यह "टंगड़ी प्रेसर"उसका बढ़िया उदाहरण है.

पंकज मुकाती ने कहा…

aapne ateet ko vartman main badhe dhang se piroya hai.. par apke doosre lekhan main badi tanhai si lagti hai..