शनिवार, 8 मई 2010

माताओं का यह भी एक रूप.

ज़िन्दगी का  जो अनुभव आपसे साझा करने जा रही,हूँ, कभी मेरे ज़ेहनसे मिटेगा नही..लेकिन कई बार , रात की तन्हाई में, आँख खुल जाती है,और कुछ  नन्हें ,मासूम-से  चेहरे  मस्तिष्क में  घूम जाते   हैं.....दिल तिलमिला उठता है..नींद उड़ जाती है ...अपनी बेबसी  इस क़दर शिद्दत से महसूस होती है, की मै बेसाख्ता उठके खड़ी हो जाती हूँ.. घरमे चक्कर काटने लगती हूँ..साँसें अपने आप सिसकियों में तब्दील हो जाती हैं..

कुछ साल पहले की घटना..महाराष्ट्र का एक जाना माना शहर, जहाँ मुझे चंद हफ्ते किसी कामसे रुकना था..एक मित्र परिवार के घर मै रुकी थी..
उन्हीं के घर एक महिला आहार तग्य से मेरा परिचय हुआ..वो उस शहर के सिविल अस्पताल में कार्यरत थी..उन दिनों कुपोषित आदिवासी बच्चे काफ़ी चर्चा में थे..अखबारों में आए दिन खबरें छपती..राज्य सरकार निशाने पे थी..कई आदिवासी बच्चे सरकारी अस्पताल में भरती होते रहते थे..इस महिला पे काम का काफ़ी भार था..बातचीत के दौरान मैंने पूछा:" क्या मेरी कुछ भी सहायता हो सकती है? मेरे पास समय तो काफ़ी है.."
उसने कहा:" ख़याल अच्छा है ! हाँ..सहायता हो सकती है..जिन,जिन wards में ऐसे बच्चे भरती किये जाते हैं,वहाँ निगरानी रखना ज़रूरी होता है..यह देखना की, बच्चों को समय से खान पान दिया जाता है या नही..कई बार खाना कुपोषित बच्चे को नहीं दिया जाता..."
मै:" क्या मतलब? कहाँ जाता है?"
महिला:" वही तो..दिन में तीन बार आहार अस्पताल की रसोइसे ward में जाता है..फिरभी कुपोषित बच्चे की हालत में सुधार नहीं होता..दो या तीन दिनों के भीतर बच्चे चलने खेलने लगने चाहियें..एक सप्ताह से ज़्यादा अस्पताल में नही रख सकते..अन्य बच्चे क़तार में होते हैं..बहुत भीड़ है..गर तुम इस बात की निगहबानी कर सको तो बहुत अच्छा होगा.."
मै:" मै तो कल सुबह ही हाज़िर हो जाउँगी...मै कुछ कर पाऊं यह मेरे लिए खुशी का अवसर होगा!"
महिला:" तो ठीक है...तुम गर सुबह ८ बजे आ जाओ तो कमसे काम उस वक़्त जो आहार दिया जाता है,उसकी निगरानी कर सकती हो...दोपहर एक बजे और शाम ७ बजे..इनको ४ बजे दूध  और फल भी दिया जाता है..वो बाद में तय करते हैं.."

मै अस्पताल पहुँच गयी..आहार आया..दूध और मीठा दलिया..बच्चों के साथ उनकी माएँ थीं .. उस भरती हुए बच्चे के ठीक ठाक भाई बहन भी उस वक़्त आ गए..मेरा पहला ही दिन था..अस्पताल का कर्मचारी वर्ग भी कितनी निगरानी रख सकता? अचानक एक अजीब-सा संयोग नज़र आया..यह मेरा भ्रम था? के केवल उस दिन जितना इत्तेफ़ाक़? बिस्तर पे पडी सारी लड़कियाँ ही थीं...! और आहार के समय अन्दर घुस आने वाले लड़के ही थे ! भाई बहन नहीं..केवल भाई! इस हुजूम में लड़कों और उनकी माओं ने तक झपट लिया आहार...!

लड़कियाँ तो केवल खाने को ताक रहीं थीं...आस भरी निगाहों से..सभी को ड्रिप लगाया हुआ था..कुछ लड़कियाँ खाना देख, कमज़ोर-सी आवाज़ में रोने लगीं..बिना जकड़े हाथ से अन्न की ओर इशारे करती हुईं...! हे भगवान् ! मै यह क्या देख रही थी? पल दो पल मुझे लगा, जैसे मै गश खाके गिर पडूँगी..पैर लड़खड़ाने लगे..अपने आपको सम्हालते हुए मैंने ऊंची  आवाज़ में टोकना शुरू किया....कुछेक पल ,केवल हैरत से, वहाँ थोड़ी खामोशी हुई..!

वहाँ से गुज़रते एक वार्ड बॉय को मैंने सहायता के लिए बुलाया...वो भी चकित-सा होके,मेरे करीब आया..समझ नही पाया की,मै इतनी उत्तेजित  क्यों हूँ...उसके लिए तो यह रोज़ का नज़ारा था!
जब बात उसके समझमे आयी तो बोला:" अरे मैडम..आप काहे इतना परेशान हो रही हैं? अपना काम था, खाना पकड़ा देना..फिर उनके माँ बाप जाने..आप कहाँ कहाँ  देखेंगी? और भी वार्ड हैं..कोरिडार में लड़कियाँ  पडी  हैं..यहाँ ऐसाही चलता है..आप यहाँ देख भी लेंगी तो इनके घरमे देखने जाएँगी? इनको सरकार की तरफ से आटा, दाल चावल भी मिलता है..इधर बच्चा  भरती होता है तो  माँ-बाप को रोज़न्दारी भी मिलती है..! यह हफ्ता दस  दिन लडकी को घर ले जाते हैं..मरने को आता है तो फिर इधर भरती कर देते हैं.. मै जाता  है..x-ray के लिए मरीज को ले जाना है..."

इतना सब कहते हुए उसने चंद माओं की ओर रुख किया...शायद मेरी तसल्ली के खातिर .....और जोर से हडकाया :" सुना क्या? क्या बोलती यह मैडम? चलो दूध दलिया लडकी लोग को खिलाओ..!"
एक औरत बोली:" अरे चुप कर...जा अपना काम कर..क्या कर लेगी यह मैडम..? दिन रात नजर रखेगी क्या?"

मैंने आगे बढ़के उसके सामने से दूध और दलिया छीन लिया..पलंग पे पड़ी,कमज़ोर-सी लडकी के पास मै खड़ी हो गयी...एक चम्मच उसके होटोंको लगाया..वो डर गयी थी..अपनी माँ की ओर मानो इजाज़त के लिए देखा..वो औरत अपनी बेटी को चिल्लाके कहने लगी:" अरे तेरा पेट और फूल जायेगा! ये खाएगी तो मर जायेगी.."

तब तक बच्ची को मुझपे कुछ विश्वास हुआ..उसने मूह खोला..पता नही कब इसके मुह में किसी ने कौर दिया होगा? मुह में मीठा स्वाद आतेही उसकी आँखों में हलकी-सी चमक आयी..मुझे देख हल्का-सा मुस्काई और फिर से अपना मुह खोल दिया..अबतक मैंने अपने आँसूं मुश्किल से रोक रखे थे...अब मुझे सिसकियाँ आने लगीं..मैंने अन्य लड़कियों और उनकी माताओं के तरफ नज़र घुमाई..सभी चुपचाप मरीज़ को खिलाने लगीं थी...
मै अपना काम धाम सब भूल गयी..मेरा पूरा दिन वहीँ गुज़रा..चंद पाठशालाओं से संपर्क कर मैंने कुछ स्वयं सेवक जुटाए..

तीसरे दिन मै वहाँ के ज़च्चा  बच्चा वार्ड में गयी..एक और दिल को तोड़ देनेवाली घटना की साक्षी बन गयी..एक औरत को जुडवा बच्चे हुए थे...एक लड़की एक लड़का..वो औरत केवल अपने लड़के को स्तन पान करा रही थी...लडकी को अस्पताल से मिलने वाला बोतल का दूध पिलाया जा रहा था..माओं का यह रूप मैंने पहली बार देखा था..!

जिन,जिन लड़कियों को मैंने अपने हाथों से खाना खिलाया,उनके मासूम चेहरे मै उम्रभर  नही भुला पाऊँगी...उनकी कहीँ कोई सुनवाई नही थी..आँखें तो मेरी इस वक़्त भी भर भर आ रहीं हैं..

39 टिप्‍पणियां:

nilesh mathur ने कहा…

आँखें भर आई हैं ये पढ़कर, विस्वास भी नहीं होता की हमारे हिंदुस्तान में अब भी ये हालात हैं, लेकिन कहीं ना कहीं हमारी भी गलती है इसमें!

Tej ने कहा…

aap ki sonch bilkul sahi hai...badhaye

Apanatva ने कहा…

ek ma aisa bhee kar saktee hai?
Dil dahala gayee ye aap beetee.


sochatee hoo kub jagrookata aaegee hamare samaj me?

aapke prati aadarbhav sahaj hee mahsoos kar rahee hoo.

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

मदर्स डे पर आपकी यह पोस्ट माताओं की एक अनोखी दास्तान कहती है. यह बड़ी प्रचलित कहावत है कि एक स्त्रीही स्त्री की दुश्मन होती है...किंतु वह स्त्री माँ हो और अपनी शरीरज स्त्री अर्थात अपनी पुत्री के साथ ऐसा व्यवहार करे!! कहीं और सुना होता तो कहा देता अविश्वस्नीय... किंतु आपने तो कुमाता होती हैं सिद्ध कर दिया... भूख माता से मातृत्व छीन लेती है... अभी भी असम्भव लग रहा है!!!

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

बहुत अच्छा किया आपने...

dipayan ने कहा…

आँखें नम हो गई आपका लेख पढ़कर । क्या लिखू सोच नही पा रहा हूँ, बस आँखें भरी हुई है । किसकी विवशता है, कौन जाने - उस मासूम बच्चो की या उनके माँ बाप की ?

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

भले ही हम अपने समाज पर कितना ही गौरान्वित महसूस करें, पर सच तो यह है कि आज भी हमारा समाज बहुत ही ज्यादा पिछड़ा हुआ है ... कुछ तो गरीबी के कारण और कुछ ममारे दकियानुसी परम्पराओं के कारण ... कुछ दिन हो गए कई महिला ब्लॉगर के ब्लोगों में पुरुषों को दोष देकर रचनाएँ छापने का दौर चल रहा है ... मानता हूँ कि पुरुष दोषी है ... पर इस बात से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि नारी खुद नारी का दुश्मन है ...
आज ज़रूरत है नारी जागरण की, नारी को नारी की सहायता चाहिए ...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर रचना!
मातृ-दिवस की बहुत-बहुत बधाई!
ममतामयी माँ को प्रणाम!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

ek-bargi to vishvas nahin hua is baat par magar apne desh men tamaam maon ka beton ke prati "ghor"prem dekhkar vishvas karna padta hai...kaash ki in maaon ko sadbuddi aaye aur betiyon ko bhi ek-si drishti se dekh saken...!!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

यही विडंबना है हमारे समाज की...स्त्रियां ही खुद के अस्तित्व को नकारती हैं...आज भी पुत्र मोह में पड़ी रहती हैं...ये स्थिति पिछड़े इलाके में आज भी पाई जाती है...हांलांकि आज सोच में अभूत बदलाव आया है पर आपके इस लेख को पढ़ मन ग्लानि से भर गया कि माँ कैसे बच्चों में फर्क कर सकती है....

बहुत मार्मिक लेख

vandana gupta ने कहा…

शमा जी
आपके इस आलेख ने तो निशब्द कर दिया है……………विअसे सुना था ऐसा होता है मगर पता नही था और आपकि तो आँखो देखी बात है………।ये सोच रही हूँ कि आपने तो देखा है और हमारा सुनकर ये हाल है तो आप पर क्या बीती होगि।

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

Pareshan kar diya aapke aalekh ne!
Man karta hai ke poochoo ke kya sach me aisa tha? Phir khyal aata hai, aap jhooth kyun bolengi.....
Mother's Day par....
Shukr hai ke main bhagyashaali hoon...
Apni ma aur sabhi maaon ko samarpit ye rachna yaheen likh de raha hoon, prasangik hai isliye....

मेरा जीवन मेरी साँसे,
ये तेरा एक उपकार है माँ!
तेरे अरमानों की पलकों में,
मेरा हर सपना साकार है माँ!
तेरी छाया मेरा सरमाया,
तेरे बिन ये जग अस्वीकार है माँ!
मैं छू लूं बुलंदी को चाहे,
तू ही तो मेरा आधार है माँ!
तेरा बिम्ब है मेरी सीरत में,
तूने ही दिए विचार हैं माँ!
तू ही है भगवान मेरा,
तुझसे ही ये संसार है माँ!
सूरज को दिखाता दीपक हूँ,
फिर भी तेरा आभार है माँ!

Vinashaay sharma ने कहा…

बाकई में दिल दहलाने वाला लेख,माँओं से यह लड़कीयों प्रति यह व्यवहार अपेक्षित नहीं था ।

विवेक रस्तोगी ने कहा…

माँ का रुप नहीं यह समाज का घिनौना रुप है, माँ "माँ" होती है, माँ कभी ऐसा नहीं कर सकती, ये हमारे समाज की सोच कि लड़कों को ही दो , लड़की को मत दो, कभी खत्म नहीं हो सकती, जब तक हम लिंगभेद करना बंद कर देंगे, अरे ये तो सोचिये माँ भी स्त्री है पर फ़िर भी जाने क्यों ??

Pradeep Kumar ने कहा…

बहुत खूब । क्‍या विडंबना है , मां का यह रूप तो पहली बार देखा है, दिल तो कहता है कि यकीन न कर मगर सच्‍चाई से आंख मूंदकर सच्‍चाई तो नहीं छुप सकती ना। लेख में वही प्रवाह, एक सांस में पढ़ गया । जिंदगी की कटु सच्‍चाई को शब्‍दों में उतारने के लिए धन्‍यवाद। भगवान ऐसे लोगों को सदबुद्धि दे।

मनोज कुमार ने कहा…

निशब्द हूं।

BrijmohanShrivastava ने कहा…

बहुत दर्दीला वाकया ,सहसा विश्वास नही होता कि क्या ऐसा भी होता है , क्या इसमे अशिक्षा, कुरीति, का हाथ है, कब यह भेदभाव मिटेगा

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

ek sachchaai hai.
- vijay

सर्वत एम० ने कहा…

मेरी आँखें नम नहीं हुईं, खून खौल गया. इस देश में सभी कुछ सम्भव है. लड़की पैदा होने पर पढ़े-लिखे, सम्भ्रान्त घरानों में भी, खुशी की बजाए मातम का ही माहौल होता है. आज भी यही स्थिति है कि लडकों के लिए सारी सुविधाएँ हैं और लडकियों को घर से झाँकने तक पर पाबंदी. मैं ने कई माँ-बाप को यह कहते सुना है कि मर जाती तो दहेज़ के लाखों रूपये बचते.
अब यदि आदिवासियों - अशिक्षितों में इस तरह की मानसिकता है तो उन्हें बुरा क्यों कहा जाए. ऑनर किलिंग की घटनाएँ रोज़ ही पढने को मिल रही हैं.
मदर्स डे पर, तस्वीर का दूसरा रुख पेश करके आप ने जो हौसला, जज्बा, जोश दिखाया उसके लिए आपको सलाम.

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

shukriya kshama ji aap mere blog par niyemit aati hai mujhe acchha laga. aapne mujhe apni kon si post padhne ki ingati ki me samajh nahi payi.kshama chaahti hu.

ye post padhi aur man na jane kaise kaise karun bhaavo se bhav vibhor ho gaya hai. bahut kuchh he kehne ko lekin ye karun nami ab kuchh na kehne degi..lekin aaj me apke lekhan ki mureed ho gayi aur apki follower ban k ja rahi hu.
apki us post k link ka intzar rahega. shukriya.

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

aapki aap beeti padh kar man dravit ho gaya hai vastutah jo kuchh aapne likh uski sachchai se mai bhi avgat hun.aap chahe kam walyo ko dekhiye ya kabhi bhookhe bachcho ko mandiro me khana khilane jaiye to bachcho ko peechhe dhakel kar unki mataye aage aa jaati hai aur bebas bachche katar najaro se dekhate hi rah jaate hai jab unke hisse ka bhojan maaye khud hi kha leti hai.ek maa ka yah roop shrmsaar kar dene wala hai.
poonam

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

हम कितना भी मुंह छिपालें...यही तल्ख़ सच्चाई है...
समाज के अधिकतर हिस्से की...

इसी से जूझकर...पार पाया जा सकता है....
बचकर नहीं....आभार...

M VERMA ने कहा…

माओं का यह रूप मैंने पहली बार देखा था..!
वाकई दिल दहला देने वाला वृत्तांत.
माओं का यह रूप ही नहीं वरन और भी अनेक रूप और भी विद्यमान है समाज में --- यहाँ तक की बेटी से धन्धा करवाने की हद तक, परंतु कारण जाने बिना कुछ कहा नहीं जा सकता. विसंगतियों से भरा पड़ा है यह हमारा समाज.
सशक्त लेखन

Basanta ने कहा…

What an heartbreaking incident for anyone! You can't imagine a mother, the ultimate symbol of love and compassion to be so cruel and inhuman.

Crazy Codes ने कहा…

kya aisa bhi hota hai???
wordless ho gaya hun... kuchh nahi kah sakta ispar...

रोहित ने कहा…

"dil bhar aaya yeh sansmaran padkar.....kya kahe kuch samajh me nai aa raha!"

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

क्षमा जी,
आपकी आपबीती पढ़ कर अचंभित नहीं हुई बल्कि उन लड़कियों की ख़ामोश पीड़ा मेरे मन को झकझोर गई| कम या ज्यादा देश के सभी प्रांत में ऐसे हीं हालात हैं| आज ७-८ साल की लड़की घर का सारा काम करती है, और निम्न तबकों में तो घरेलू काम पर इसी उम्र में लगा भी दी जाती है, जबकि उसी उम्र का लड़का ठीक से चड्डी तक नहीं पहन सकता, या फिर पढ़ने के लिए स्कूल भी जाता है| हम हर बात केलिए सरकार या परिवेश को दोष दे देते हैं, जबकि ख़ुद अपने हीं घर वाले लड़की को बोझ समझते और अत्याचार करते| किसे दोष दें? संस्कृति को जिसमें माँ की ममता हर बच्चों केलिए एक सी होती, परन्तु सच ऐसा कहाँ दीखता| लेकिन कभी गहनता से विचार करें तो इस मानसिकता के पीछे भी हमारी परंपरा का दोष है| बेटों में ख़ुद का भविष्य दीखता, खानदान का वारिश दीखता, बुढापे का सहारा दीखता| जबकि लड़की को पढ़ा लिखा भी दे फिर भी शादी केलिए दहेज़, शादी के बाद उसके ससुराल वालो का दुर्व्यवहार, या फिर जन्मजात कन्या से लेकर ८० साल की स्त्री तक का बलात्कार हो जाता| कहीं न कहीं इन सब केलिए हमारा समाज दोषी है, जो आज भी पुरुष की सत्ता से मोह भंग नहीं कर पता|
आपके लेख पर जाने कितना कुछ लिख जाऊं| आपकी संवेदनशीलता को बहुत नमन! शुभकामनाएं!

मीनाक्षी ने कहा…

dil dehal gayaa... maa kaa ek roop aisa badsoorat bhi hoga...yeh jaan kar...shabd nahi apne bhav vaykt karne ke liye...

ज्योति सिंह ने कहा…

लड़कियाँ तो केवल खाने को ताक रहीं थीं...आस भरी निगाहों से..सभी को ड्रिप लगाया हुआ था..कुछ लड़कियाँ खाना देख, कमज़ोर-सी आवाज़ में रोने लगीं..बिना जकड़े हाथ से अन्न की ओर इशारे करती हुईं...! हे भगवान् ! मै यह क्या देख रही थी? पल दो पल मुझे लगा, जैसे मै गश खाके गिर पडूँगी..पैर लड़खड़ाने लगे..अपने आपको सम्हालते हुए मैंने ऊंची आवाज़ में टोकना शुरू किया....कुछेक पल ,केवल हैरत से, वहाँ थोड़ी खामोशी हुई..!
bahut sahi vishya ko saame aap laayi ,sach aese halaat par dukhi hoye ya taras khaye samjh nahi aata ,vichaarniye avam uttam .

संजय भास्‍कर ने कहा…

मातृ दिवस के अवसर पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें

ज्योत्स्ना पाण्डेय ने कहा…

मार्मिक!

शमा जी, निशब्द हूँ, इस कारुणिक सत्य को जानकर..... माँएं ऐसी भी होती हैं ....????

सादर- ज्योत्सना

sandhyagupta ने कहा…

kuch kahne ko shabd nahin hain!

Murari Pareek ने कहा…

BAHUT BAHUT MARMIK HAI IS DUNIYAA KA KYAA HOIGAA CHAROON TARAF TARAF GHOR PAAP LUT KHASOT HO RAHI HAI.... SACHMUCH BAHUT HI DARDNAAK HAI..

CS Devendra K Sharma "Man without Brain" ने कहा…

madam, is duniyaa ka sirf bhagwaan hi maalik hai!!!!!!!

Ra ने कहा…

कहीं ना कहीं हमारी भी गलती है इसमें!

शारदा अरोरा ने कहा…

बच्चे तो माँ के दिल के टुकड़े होते हैं , वो लड़का या लड़की नहीं होते , तरस आता है ऐसी मानसिकता पर , ये भटकाव ही तो है जो इन्सानियत तक को ताक़ पर रख देता है ।

बेनामी ने कहा…

sach mein wiswaas nahi hota...
dukh hua jaan kar, palkein bheeg gayi....-----------------------------------
mere blog mein is baar...
जाने क्यूँ उदास है मन....
jaroora aayein
regards
http://i555.blogspot.com/

Arvind Mishra ने कहा…

ओह बहुत भावपरक !

S R Bharti ने कहा…

माँ का ऐसा रूप देख कर मन द्रवित हो गया
सार्थक लेख , हार्दिक बधाई