ता-उम्र इस शमा को,
कभी उजाले इतने तेज़ थे,
की, दिए दिखायी ना दिए,
या जानिबे मंज़िल अंधेरे थे,
दिए जलाये ना दिए गए......

मेरी उम्र कुछ तीन चार साल की रही होगी, दादीमाँ मुझे खम्बात ले गयीं थीं. यह स्थल गुजरात में है.एक ज़माने में मशहूर और व्यस्त बन्दर गाह था. यहीं उनका नैहर था. हालाँकी,मै बहुत छोटी थी, लेकिन वह हवेली नुमा मकान और उसका परिसर मेरे दिमाग में एक तसवीर की तरह बस गया.
लाल आंखोंवाली बुलबुल पँछी के जोड़े की ये कढ़ाई है. इनकी तसवीर देखी तो इकहरे धागे से इन्हें काढने का मोह रोक नही पाई.
सिंदूरी रंगों की छटाओं के रेशम के तुकडे, जिन से मैंने बनाई है है चित्र की पार्श्वभूमी...कुछ रंगीन रूई के तुकडे, टांकें हैं( जिस रूई से सूत बनता है), बने हुए सूत से पेड़ काढ़े हैं...रेशम के धागों से कढ़ाई भी की है...आसमान के ऊपरी हिस्से को रेशमी टिश्यु से ढँक के फिर सिल दिया है. सब से नीचे खादी का रेशमी कपड़ा सिल दिया है.
१५ अगस्त और २६ जनवरी की कुछ यादें साझा करना चाह रही हूँ.तिरंगे के रंगों में व्यंजन बनाना...तीन रंगोंकी बर्फी,तीन रंगोंकी खीर,तीन रंगोंका केक,(जो तसवीर में दिख रहा है),तीन रंगों की पूडियां,तीन रंगों के फल,sandwiches,तीन रंगों का पुलाव...और ना जाने क्या,क्या...जून के माह से मै आज़ादी की बधाई देने वाले कार्ड्स बनाने लग जाती...हर कार्ड अलग...हर कार्ड पे अलग सन्देश..जैसे:"मेरी बीना के तार हो मिले हुए,एक भीनी मधुर झंकार उठे,मेरी माता के सरपे ताज रहे",या,"खादी का कफ़न हो मुझपे पड़ा,वन्देमातरम आवाज़ रहे,मेरी माताके सरपे ताज रहे".
बचपनकी एक यादगार जगह! हमारे खेत में तीन कुदरती तालाब थे. अब तो खैर सभी सूख गए हैं. उनमे से एक तालाब से मुझे कुछ ख़ास ही लगाव था. दादीमाँ और माँ बगीचे में तरह तरह के फूल पौधे लगाती रहती और मै उन्हें लगाते हुए देखा करती. जब मुझे कोई नही देख रहा होता तो उन्हें उखाड़ के मै मेरे पसंदीदा तालाब के किनारे ले जाती. अपने खिलौनों के औज़ारों से वहाँ गड्ढे बनाके रोप देती.मेरी तब उम्र होगी कुछ पाँच साल की.. तालाब में से पानी निकाल नियम से उन्हें डालती रहती और ये पौधे वहाँ खूब फूलते .
सिल्क के चंद टुकड़े जोड़ इस चित्र की पार्श्वभूमी बनाई. उस के ऊपर दिया और बाती रंगीन सिल्क तथा कढाई के ज़रिये बना ली. फ्रेम मेरे पास पहले से मौजूद थी. बल्कि झरोखानुमा फ्रेम देख मुझे लगा इसमें दिए के सिवा और कुछ ना जचेगा.बना रही थी की,ये पंक्तियाँ ज़ेहन में छाती गयीं....
कुछ सिल्क के टुकड़े,कुछ खादी के,और बाकी कढाई से बनी घांस-फूंस ....कुँए की ओर जाती पगडंडी..और एक मंडवा..
पँछी तो कढाई से बना है. पत्तों के लिए सिल्क हरे रंग की छटाओं में रंग दिया और आकार काट के सिल दिए. घोंसला बना है,डोरियों,क्रोशिये और धागों से. पार्श्व भूमी है नीले रंग के, हाथ करघे पे बुने, रेशम की.
यह भित्ती चित्र केवल कढाई से बनाया है... जब कभी इस चित्र को या डाल पे बैठे,या फिर आसमान में उड़ने वाले परिन्दोको देखती हूँ ,तो मुझे वो लोग याद आ जाते हैं,जिनके बारे में लिखने जा रही हूँ.
यह भित्ती चित्र केवल कढाई से बनाया है... जब कभी इस चित्र को या डाल पे बैठे,या फिर आसमान में उड़ने वाले परिन्दोको देखती हूँ ,तो मुझे वो लोग याद आ जाते हैं,जिनके बारे में लिखने जा रही हूँ!
एक अजीब-सा सपना आता मुझे कभी कबार..माथे पे तपता सूरज, जो दिशा भ्रम कराता...पैरों तले तपती रेत ,तलवे जलाती रहती..कुछ दूरी पे,टीलों के पीछे,हरे,घनेरे पेड़ नज़र आते..नीली पहाडी,और उसके ऊपर मंडराते मेघ..साथ ही मृगजल..मै जितना उनके करीब जाती वो उतना ही दूर जाते..मुड़ के देखती तो पीछे नज़र आते..जब तलिए बेहद जलने लगते,सरपे धूप असह्य हो जाती तो मेरी आँख खुल जाती...पसीने से लथपथ,और ज़बरदस्त सर दर्द लिए...
कुछ हाथ करघेसे बने सिल्क के टुकड़े, थोडा घरपे काता और रंगा गया सूत और रंगीन रुई के ( sliver)टुकड़े,थोडा tissue जिसका कुछ हिस्सा रंगीन रुई के टुकड़ों पे चढ़ाया गया है....और हाथसे की कढ़ाई...इन सबसे यह भित्ती चित्र मैंने बनाया है....जो याद दिलाता है ,बचपन की सुनहरी शामों के रंग .....
सिल्क पे थोडा water color,थोड़ी कढाई .
मेरी उम्र कुछ तीन चार साल की रही होगी, दादीमाँ मुझे खम्बात ले गयीं थीं. यह स्थल गुजरात में है.एक ज़माने में मशहूर और व्यस्त बन्दर गाह था. यहीं उनका नैहर था. हालाँ की,मै बहुत छोटी थी, लेकिन वह हवेली नुमा मकान और उसका परिसर मेरे दिमाग में एक तसवीर की तरह बस गया.
खादी सिल्क से दीवारें तथा रास्ता बनाया है..क्रोशिये की बेलें हैं..और हाथसे काढ़े हैं कुछ फूल-पौधे..बगीचे मे रखा statue plaster ऑफ़ Paris से बनाया हुआ है..
खादी सिल्क से दीवारें तथा रास्ता बनाया है..क्रोशिये की बेलें हैं..और हाथसे काढ़े हैं कुछ फूल-पौधे..बगीचे मे रखा statue plaster ऑफ़ Paris से बनाया हुआ है..
पार्श्वभूमी बनी है , घरमे पड़े चंद रेशम के टुकड़ों से..किसी का लहंगा,तो किसी का कुर्ता..यहाँ बने है जीवन साथी..हाथ से काता गया सूत..चंद, धागे, कुछ डोरियाँ और कढ़ाई..इसे देख एक रचना मनमे लहराई..